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(इक्कीस)
अध्याय ७
आज्ञावाद (श्लोक ४०)
१३२-१५२ १. आज्ञा में धर्म का कथन । २. आज्ञा की परिभाषा। ३. वीतरागी ही यथार्थवादी । ४-७. आज्ञा की आराधना और विराधना। ८. मेधावी कौन ? ६. जीवन और मरण की श्रेयस्करता में संयम का प्राधान्य । १०. असंयम क्या है? ११-१२. पूर्ण और अपूर्ण संयम और उसके आराधक।
१३. वीतराग का उपदेश क्यों? हिंसा और अहिंसा का विवेक । १४-१७. हिंसा करने के तीन हेतु और उसके तीन प्रकार।
१८. मुनि के लिए हिंसा का सर्वथा त्याग। १६. श्रावक के लिए धर्म का मर्म ।
२०. संयमी व्यक्ति के वर्तन के दो प्रकार –समिति, गुप्ति । २१-२३. श्रावक के लिए अहिंसा का विवेक । २४-२५. दो प्रकार का गृहस्थ-धर्म । २६-२७. गृहस्थ और मुनि के आत्मधर्म का स्वरूप एक, पालन की
तरतमता का भेद। २८-३३. तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्म का स्वरूप । ३४-३५. अहिंसा की आराधना और आज्ञा की आराधना।
३६. अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म । ३७. सत्य की महिमा। ३८. अचौर्य व्रत के लाभ। ३६. ब्रह्मचर्य के अंग। ४०. अपरिग्रह के अंग और फलश्रुति ।
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