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( २३ ) दिया। वह उनकी वैचारिक क्रान्ति थी। उनके धर्म का केन्द्र ईश्वर नही था और न वेद था, किन्तु आत्मा था, जिसे भुला दिया गया था। उसी भूली भटकी आत्मा को केन्द्र मे रखकर भगवान् महावीर ने अपनी तत्त्वज्ञान-मूलक साधना की या साधना-मूलक तत्त्वज्ञान का सागोपाग विवेचन किया। और सृष्टि के किसी रहस्य को 'अव्याकृत' कहकर उसे टाला नही।
सत्य को जानने से भी अधिक कठिन है सत्य को यथार्थ रूप में प्रकाशित करना, क्योकि ज्ञान पूर्ण सत्य को एक साथ जान सकता है, किन्तु शब्द उसे एक साथ ज्यो का त्यो प्रकाशित नही कर सकता। शब्दोत्पत्ति क्रमिक तो है। फिर ज्ञाता अपने अभिप्राय के अनुसार वस्तु के धर्म को प्राधान्य देता है। इन कारणो से उत्पन्न हुए विवाद या मतिभेद को दूर करने के लिये भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद के साथ स्याद्वाद और नयवाद का समवतार दार्शनिक क्षेत्र मे किया, जिससे वैचारिक क्षेत्र में किसी के साथ अन्याय न हो। पूर्ण अहिंसक तो थे वे। इसीसे स्वामी समन्तभद्र ने अपने युत्तयनुशासन मे कहा है
दया-दम-त्याग-समाघिनिष्ठ, नय-प्रमाणः प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यनिखिलप्रवादिभि
जिन त्वदीय मतमद्वितीयम् ।। हे जिन ! तुम्हारा मत अद्वितीय है। एक ओर वह दया, दम, त्याग और समाधि को लिये हुए है, दूसरी ओर उसमें नय और