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मनुष्य जीवन का हेतु मुक्ति प्राप्ति का है ! और उसके लिए 'ज्ञानी पुरुष' को ढूंढना चाहिए, और वे मिल जाएँ तो काम निकल जाए! शुद्धात्मा और संयोग दो ही हैं जगत् में, उसमें भी संयोग मात्र वियोगी स्वभाव के हैं। संयोग सभी अर्पण कर दिए तो मोक्ष होता है !
जिसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं होते, उसे पूरा ही दिन सामायिक है। अक्रम में निरंतर सामायिक रह सके, वैसा है। आर्तध्यान - रौद्रध्यान जाए नहीं तो उसके लिए ४८ मिनिट सामायिक में बैठकर आर्तध्यान - रौद्रध्यान से बिल्कुल मुक्त रहें तो वह सच्ची सामायिक की कही जाएगी। उसके लिए सामायिक करने से पहले विधि करनी पड़ती है कि 'हे भगवान, मैं चंदूलाल, मेरा नाम, मेरी काया, मेरी जात, मेरा मिथ्यात्व, सबकुछ आपको समर्पण करता हूँ। अभी मुझे सामायिक करते समय वीतराग भाव दीजिए!!'
जो तीर्थंकर होनेवाले हैं, उनके लक्षण क्या? निरंतर जगत् कल्याण की भावना। उसके अलावा दूसरी कोई भी भावना नहीं होती। खाना, पीना, रहना, सोना चाहे जैसा मिले, फिर भी कल्याणभावना निरंतर वैसी की वैसी ही रहती है। खुद का संपूर्ण कल्याण हो चुका होता है, वही दूसरों का कल्याण कर सकते हैं। वे ही कल्याण की भावना कर सकते हैं! और जो ज्ञानी की आज्ञा में निरंतर रहे, कृपापात्र बने, तो वह उस स्टेज में आ सकता है!
स्वस्तिक क्या सूचित करता है? चार पंख चार गति सूचित करते हैं और मध्य में मोक्ष !
ये दिखते हैं, वे दादा भगवान नहीं हैं! आपको जो याद आते हैं, वे असल दादा हैं! ये दिखते हैं, वे तो ए. एम. पटेल हैं और भीतर बैठे हैं, वे प्रकट परमात्म स्वरूप 'दादा भगवान' हैं ! देहधारी को भगवान नहीं कह सकते। देह तो नाशवंत है और परमात्मा तो परमानेन्ट हैं, हमारे अंदर व्यक्त हुए हैं दादा भगवान ! सूरत के स्टेशन की बैंच पर १९५८ में ! ! !
संतों का व्यवहार शुभाशुभ होता है । ज्ञानी का शुद्ध व्यवहार होता है। जो व्यवहार पूरा होता जाए, वह शुद्ध हुआ कहा जाता है । 'ज्ञानी पुरुष '
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