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आप्तवाणी-५
अर्थात् यदि आत्मा जानना हो तो आत्मा के जानकार होने चाहिए ।
प्रश्नकर्ता : 'सत् पुरुष' रूपी सुनार होने चाहिए।
दादाश्री : नहीं, सत् पुरुष तो 'इन' सभी महात्माओं को कहा जाता है। सत् पुरुष किसे कहते हैं कि सत् जिसने प्राप्त किया है और पुरुषार्थ धर्म में आ चुके हैं वे। सत् अर्थात् अविनाशी । सत् पुरुष खुद का अविनाशी पद प्राप्त कर चुके होते हैं । 'मैं आत्मा हूँ' ऐसी प्रतीति, जागृति हो चुकी होती है। परन्तु वे सत् पुरुष ही कहलाते हैं, 'ज्ञानी पुरुष' नहीं कहलाते । 'क्रमिक' में सत् पुरुष के लिए त्यागात्याग संभव है, 'ज्ञानी पुरुष' को त्यागात्याग संभव नहीं है ! 'ज्ञानी पुरुष' तो दूसरों को मोक्ष का दान देते हैं! दूसरों को ज्ञानमय बनाते हैं !! श्रीमद् राजचंद्र ने 'ज्ञानी' को मोक्षदाता पुरुष कहा है। ‘ये' सभी मोक्ष में रहते ज़रूर हैं, परन्तु दूसरों को मोक्ष नहीं दे सकते। उन्हें आत्मा की प्रतीति और लक्ष्य ही हुआ है । आत्मा का अस्पष्ट वेदन उन्हें रहता है। इसमें तो आत्मा का स्पष्ट वेदन जिसे है वैसे 'ज्ञानी पुरुष' चाहिए। उन्हें कहीं भी आत्मा के अलावा और कुछ भी दिखता ही नहीं है। उन्हें इस जगत् में कोई दोषित दिखता ही नहीं है। जेब काटनेवाला भी दोषित नहीं दिखता और दान देनेवाला भी दोषित नहीं दिखता। फिर भी आप मुझे ऐसा पूछो कि 'ये दोनों एक समान कहलाएँगे ?' तब मैं कहूँगा कि, ‘ये दान देनेवाला है वह जो क्रिया कर रहा है, उसका फल वह भोगेगा। और जो जेब काट रहा है, वह जो क्रिया कर रहा है, उसका फल वह भोगेगा, बाकी दोषित कोई नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : दोषित क्यों नहीं कहलाएँगे?
दादाश्री : वे सब संयोग के अनुसार करते हैं। अच्छा करनेवाला भी संयोग के अनुसार करता है और खराब करनेवाला भी संयोग के अनुसार करता है
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अब, आत्मा को आत्मधर्म में लाने के लिए मोक्षदाता पुरुष की ज़रूरत पड़ेगी।