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आप्तवाणी-५
यह चाहिए। करने से कर्म बँधते हैं। जो-जो करोगे, शुभ करोगे तो शुभ के कर्म बँधेगे, अशुभ करोगे तो अशुभ के बँधेगे और शुद्ध में तो कुछ है ही नहीं। 'ज्ञान' अपने आप ही क्रियाकारी है। खुद को कुछ भी करना नहीं पड़ता।
खुद महावीर जैसा ही आत्मा है, परन्तु भान नहीं हुआ है न? इस 'अक्रम विज्ञान' से वह भान होता है। जागृति बहुत बढ़ जाती है। चिंता बंद हो जाती है, मुक्त हुआ जाता है! संपूर्ण जागृति उत्पन्न होती है। यह 'केवळज्ञान' विज्ञान है। ऐसा-वैसा नहीं है। इसलिए अपना काम हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : आप जितने ज्ञानी हैं, उतना ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : उनके पास बैठना चाहिए, उनकी कृपा प्राप्त करनी चाहिए। बस, और कुछ नहीं करना है। 'ज्ञानी' की कृपा से ही सब होता है। कृपा से 'केवळज्ञान' होता है। करने जाओगे, तब तो कर्म बंधेगे। क्योंकि 'आप कौन हो?' वह निश्चित नहीं हुआ है। 'आप कौन हो?' वह निश्चित हो जाए तो कर्ता निश्चित हो जाए।
सापेक्ष व्यवहार
_ 'व्यवहार क्या है' इतना ही यदि समझ ले, तब भी मोक्ष हो जाएगा। यह व्यवहार सारा रिलेटिव है और ऑल दीज़ रिलेटिव्स आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स एन्ड रियल इज़ द परमानेन्ट एडजस्टमेन्ट!
नाशवंत वस्तुओं में मेरापन का आरोप करना, वह 'रोंग बिलीफ़' है। मैं चंदूभाई हूँ, इसका पति हूँ' वे सब रोंग बिलीफ़' हैं। आप 'चंदूभाई' हो, ऐसा निश्चय से मानते हो? प्रमाण हूँ? 'चंदूभाई' को कोई गाली दे तो असर होता है क्या?
प्रश्नकर्ता : बिल्कुल नहीं। दादाश्री : जेब काटे तो असर होता है?