Book Title: Aptavani Shreni 05
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 199
________________ आप्तवाणी-५ समय होता है और फिर छोड़ देता है फिर धर्म की तरफ जाता है, ऐसा क्यों? १६८ दादाश्री : इस जगत् में सिर्फ आकर्षण ही नहीं है । आकर्षण और विकर्षण दोनों हैं, वे द्वंद्वरूप हैं । यह जगत् ही द्वंद्वरूप है। सिर्फ आकर्षण या सिर्फ विकर्षण नहीं होता है, नहीं तो फिर से आकर्षण होगा ही नहीं और सिर्फ धर्म का आकर्षण होगा तो भी लोग ऊब जाएँगे, क्योंकि इस संसार में जो धर्म चलते हैं, वे यथार्थ धर्म नहीं हैं, भ्रांतिधर्म हैं । प्रश्नकर्ता : परन्तु इस भ्रांतिधर्म की भी ज़रूरत है न? दादाश्री : हाँ, डेवलप होने के लिए ज़रूरी है । कुटते -कुटते आगे बढ़ना है। जैसे-जैसे कुटता है, पिसता है वैसे-वैसे बुद्धि बढ़ती है । जैसेजैसे बुद्धि बढ़ती है, वैसे-वैसे जलन बढ़ती जाती है इसलिए स्वधर्म की शरण ढूंढ़ता है। सच्ची सामायिक प्रश्नकर्ता : दादा, शास्त्र पढ़ते हुए थकान लगती है, सामायिक करते हुए थकान लगती है, प्रतिक्रमण करते हुए थकान लगती है, पूजा करते हुए थकान लगती है, थकान लगे तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : भगवान ने सामायिक किसे कहा है? जिसे आर्तध्यान, और रौद्रध्यान नहीं हों, उसे पूरे दिन ही सामायिक है, ऐसा कहा है! महावीर भगवान कितने समझदार थे ! आपके लिए कुछ भी मेहनत करने का रखा नहीं, और इन लोगों की एक भी सामायिक भगवान एक्सेप्ट नहीं करते, आर्तध्यान और रौद्रध्यान एक गुंठाणे के लिए यानी, अड़तालीस मिनिट के लिए बंद हो जाने चाहिए। 'मैं चंदूभाई हूँ' करके सामायिक करते है, जैसे इस नीम को काट दें तब भी फिर से फूटता है, फिर भी वह कड़वा ही रहता है ना? क्यों, काटने के बाद अंदर चीनी डालें, तब भी कड़वा रहेगा? प्रश्नकर्ता : हाँ, मूल में ही ऐसा है, दादा । दादाश्री : मूल स्वभाव में ही ऐसा है दादा ! वैसे ही ये चंदूलाल

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