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आप्तवाणी-५
दादाश्री : दुःख कैसा? प्रश्नकर्ता : शारीरिक व्याधि।
दादाश्री : उसमें डर कैसा? 'व्यवस्थित' है न? 'व्यवस्थित' में अँधे होना होगा तो अंधा हो जाएगा, फिर उसका डर कैसा? 'व्यवस्थित' हमने 'एक्सेप्ट' किया है, फिर कभी कुछ स्पर्श नहीं करेगा, कोई भय रखने जैसा नहीं है। निर्भय होकर घूमो।
प्रश्नकर्ता : वेदना का भय रहा करता है।
दादाश्री : वेदना होती ही नहीं तो वहाँ वेदना का भय कहाँ से होगा? वेदना तो उसे होती है कि जिसे भय हो! जिसे भय नहीं उसे वेदना कैसी? यह तो आपका ‘वणिक माल' भरा हुआ है न? वह एकदम नरम होता
है।
यह सेब खाएँ और दूसरा अमरूद खाएँ, तो उन दोनों में फ़र्क नहीं है? अमरूद ज़रा सख़्त होता है और सेब नरम लगता है। इसलिए आपको 'चंदभाई' से कहना चाहिए कि 'दादा' ने कहा है : 'व्यवस्थित'। 'व्यवस्थित' कहने के बाद भय कैसा?
प्रश्नकर्ता : दो दिन से सिर दुःख रहा था। वह ज़रा भी सहन नहीं हो रहा था।
दादाश्री : 'मुझसे सहन नहीं होता।' ऐसा कहा कि वह पकड़ लेगा! परन्तु 'हमें' तो कहना चाहिए, 'चंदूभाई, बहुत सिर दुःख रहा है? मैं हाथ फेर देता हूँ। कम हो जाएगा।' परन्तु 'मुझे दुःख रहा है' कहा कि पकड़ लेगा! यह तो बहुत बड़ा भूत है!
प्रश्नकर्ता : शाता मीठी लगती है और अशाता अप्रिय लगती है।
दादाश्री : वह 'चंदूभाई' को लगती है न? 'चंदूभाई' से 'हम' कहें कि डिक्शनरी अब बदल डालो। अशाता सुखदायी और शाता दुःखदायी। सुख-दुःख तो सारे कल्पित हैं। मेरा यह एक शब्द सेट करके देखना,