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आप्तवाणी-५
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शरीर का आकर्षण होना, वह स्वाभाविक क्रिया है।
प्रश्नकर्ता : परन्तु वह पुद्गलवाले भाग में होता है न?
दादाश्री : सबकुछ पुद्गल ही कहलाता है। जगत् उसे चेतन मानता है, वास्तव में वहाँ पर चेतन है ही नहीं। कोई चेतन तक पहुँचा ही नहीं! चेतन की परछाई तक भी नहीं पहुँचा!
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी और ज्ञान-अवतार, इन दोनों में क्या फर्क है?
दादाश्री : उनमें खास कोई फर्क नहीं होता, परन्तु ज्ञानी तो ऐसा है न कि सभी को, शास्त्र के ज्ञानियों को भी ज्ञानी ही कहते हैं न? फिर वे शास्त्र चाहे जो भी हो। कुरान को जानता हो उसे भी ज्ञानी कहते हैं। यानी कि ज्ञान अवतार कहा हुआ है। दूसरे किसीसे ज्ञान-अवतार नहीं लिखा जा सकता, ज्ञानी अकेले ही लिख सकते हैं, उतना फर्क रहा!
प्रश्नकर्ता : कृपालुदेव ज्ञान-अवतार कहलाएँगे न? दादाश्री : हाँ, वे तो ज्ञान-अवतार हैं। प्रश्नकर्ता : आत्मज्ञानी और केवळज्ञानी में क्या फर्क है?
दादाश्री : कुछ भी फर्क नहीं है। आत्मा केवळज्ञान स्वरूप' है, परन्तु सत्ता के कारण फर्क है। सत्ता अर्थात् आवरण के कारण केवळज्ञान नहीं दिखता है। बाहर का दिखता है। सत्ता वही की वही होती है, जैसे किसीको डेढ नंबर के चश्मे हों और किसीको चश्मे नहीं हों तो फर्क पड़ेगा न? उसके जैसा है!
प्रश्नकर्ता : युग पुरुष प्रकट होंगे हमलोगों के शासन में?
दादाश्री : होंगे न! युग पुरुष नहीं होंगे, तो यह दुनिया किस तरह चलेगी? कुदरत को गरज़ है, उसके लिए हमलोगों को गरज़ रखने की ज़रूरत नहीं है। जन्मोत्री देखने की भी ज़रूरत नहीं है। वह तो कुदरत के नियम से ही होगा। आप अपनी तैयारी रखो, बिस्तर-कपड़े बाँधकर गाड़ी कब आए और बैठ जाएँ, ऐसी तैयारी रखो।