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आप्तवाणी-५
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दादाश्री : नम्रता आए या नहीं आए, परन्तु समकित तब से माना जाता है जब से खुद के दोष दिखने लगें। नहीं तो खुद का एक भी दोष नहीं दिखता। 'मैं ही कर्ता हूँ' ऐसा रहता है!
हमारे 'ज्ञान' के लिए कर्त्ताभाव, वह कुसंग है। बल्कि उसका नशा चढ़ता है। जहाँ कर्त्तापद है वहाँ समकित भी नहीं है। समकित नहीं है, वहाँ मोक्ष की बात करनी गलत है, निरर्थक है!
जिसका निदिध्यासन करो... प्रश्नकर्ता : दादा, आपके स्मरण और निदिध्यासन में कुछ फ़र्क है क्या?
दादाश्री : निदिध्यासन तो मुखारविंद सहित रहता है और स्मरण मुखारविंद के बिना रह सकता है। मुखारविंद सहित निदिध्यासन बहुत काम निकाल लेता है। 'दादा' 'एक्जेक्ट' नहीं दिखें, उसमें हर्ज नहीं है। आँखें नहीं दिखें तब भी हर्ज नहीं है, परन्तु मूर्ति दिखनी चाहिए। जिनका निदिध्यासन करें, उस रूप हो जाते है। 'दादा' खुद स्वभाव के कर्ता हैं। दादा 'एक्जेक्ट' दिखें, तो उस स्वरूप हो पाएँगे, आप भी स्वभाव के कर्ता बन जाएँगे! दादा का स्मरण रहे तब भी अच्छा और निदिध्यासन रहे तब भी अच्छा है।
प्रश्नकर्ता : सतत निदिध्यासन नहीं रहता।
दादाश्री : दादा के स्मरण में मन की चंचलता रहती है, चित्त की भी चंचलता होती है और निदिध्यासन में चंचलता नहीं रहती। निदिध्यासन में चित्त को वहाँ पर रहना पड़ेगा। चित्त हाज़िर हो तब तक ही काम चलेगा। मन की चंचलता का हर्ज नहीं है, परन्तु चित्त को वहाँ पर हाज़िर रहना ही पड़ेगा और जहाँ चित्त हाज़िर रहे, वहाँ मन को बैठे रहना पड़ेगा। फिर भी पूरा दिन दादा का स्मरण रहे तो बहुत हो गया। परन्तु साथ-साथ थोड़ा निदिध्यासन रहे तो अच्छा।
स्वप्न में तो दादा 'एक्जेक्ट' दिखते हैं। जिन्हें भजते हैं, उन जैसे