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आप्तवाणी-५
उसे छूता नहीं है। उसी प्रकार यह 'ज्ञान' अविनय छुड़वाता है, और परम विनय उत्पन्न करवाता है। आपको परम विनय में नहीं रहना है, परन्तु...
प्रश्नकर्ता : अपने आप ही रहा जाता है। दादाश्री : हाँ, अपने आप ही परम विनय में रहा जाता है।
दादा के दरबार का विनय दादाश्री : यह हम आते हैं और आप सब खड़े हो जाते हो, तो इस उठने-बैठने से तो अंत आए ऐसा नहीं है। उससे तो दम निकल जाएगा।
प्रश्नकर्ता : जिनालय में तो भगवान की मूर्ति के पास वंदना करते समय उठक-बैठक ही करते हैं न?
दादाश्री : वहाँ उठक-बैठक करें तो विनय के बहुत (मार्क) अंक हैं और यहाँ पर तो अन्य बहुत सारी कमाई करनी है न? विनय का फल मोक्ष है, क्रियाओं का फल मोक्ष नहीं है। जिनालय में विनय करो, वह दिखता है। यों क्रिया ज़रूर है, परन्तु उस समय अंदर सूक्ष्म विनय है, वह मोक्षदायी है। वंदन करे उस घड़ी गालियाँ नहीं दे रहा होता है और 'यहाँ' का विनय तो अभ्युदय और आनुषंगिक दोनों फल देता है! गुरु महाराज का विनय करके बाहर आकर निंदा करें तो फिर सबकुछ मिट्टी में ही मिल जाएगा। जिसका विनय करो, उनकी निंदा मत करना और निंदा करनी हो तो वहाँ पर विनय मत करना। उसका कोई अर्थ ही नहीं है न!
आपको तो यहाँ पर कुछ करने को रहा ही नहीं न! यहाँ पर खड़ा होने के लिए तो इसलिए मना करते हैं कि इस काल में लोगों के पैरों का ठिकाना नहीं है। पूरे दिन भाग-दौड़, भाग-दौड़ होती है। ये रेल्वे ने भी पुल चढ़ा-चढ़ाकर दम निकाल दिया है! अब उसमें हम कहें कि 'खड़े हो जाओ, बैठ जाओ' तो उसका कब अंत आएगा? इसके बदले तो ऐसे ही सही-सलामत रहो न। जिसे जैसे अनुकूल आए, वैसे बैठो। 'दादा' को