________________
१२२
आप्तवाणी-५
लक्ष्मी की भीख नहीं होती, कीर्ति की भीख नहीं होती. विषयों की भीख नहीं होती, मान की भीख नहीं होती, निरीच्छक, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष', जिनके दर्शन मात्र से ही पाप धुल जाते हैं ! उनके पास बैठने से अपार शांति का अनुभव होता है।
कहाँ वीतराग मार्ग और कहाँ... जैसे-जैसे अज्ञानता बढ़ती है, मोह बढ़ता है, वैसे-वैसे मोह के साधन अधिक प्राप्त होते हैं और खुद अपने आपको न जाने क्या मानता है कि मेरे कितने पुण्य होंगे कि मुझे यह बंगला मिला, पंखे मिले! इससे तो बल्कि फँसता जाता है। कीचड़ में डूबने के बाद जैसे-जैसे निकलने का प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे अधिक फँसता जाता है, ऐसी दशा होती है! कहाँ वीतरागों का मोक्षमार्ग और कहाँ यह दशा?
सम्यक् आचार भी किसी जगह पर नहीं रहा है, लोकाचार हो गया है। सम्यक् आचार को तो देखकर ही हमलोग खुश हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : लोकाचार और सम्यक्आचार, इन दोनों में क्या फर्क
दादाश्री : लोकाचार अर्थात् लोगों का देखकर आचरण करते रहना और सम्यक् अर्थात् विचारपूर्वक आचार, संपूर्ण रूप से नहीं परन्तु जितनेजितने अंशों तक विचारपूर्वक करता है, उतने अंश का सम्यक् आचार उत्पन्न होता है, परन्तु जो सम्यक् आचार होता है, वह तो सर्वांश ही होता है। भगवान के शास्त्रों से मेल खाए वैसा होता है।
एक भी जीव ऐसा नहीं होगा कि जो सुख नहीं ढूंढ़ रहा हो! और वह भी फिर शाश्वत सुख ढूंढता है। वह ऐसा समझता है कि लक्ष्मीजी में शाश्वत सुख है। परन्तु उसमें भी भीतर जलन खड़ी होती है। जलन होना
और शाश्वत सुख मिलना, वह कभी भी होगा ही नहीं। दोनों विरोधाभासी हैं। इसमें लक्ष्मीजी का दोष नहीं है, उसका खुद का ही दोष है। यह तो लक्ष्मीजी की ओर ध्यान देता है और दूसरी किसी ओर देखता ही नहीं