Book Title: Aptavani Shreni 05
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 165
________________ १३४ आप्तवाणी-५ बेहद के लिए तो 'ज्ञानी पुरुष' के निमित्त की ज़रूरत। वे मिल जाएँ तब उनसे हमें कहना है, 'आपने जिस पद को प्राप्त किया है, वह पद हमें भी प्राप्त हो ऐसी कृपा कीजिए।' सिर्फ कृपा की ही माँग करनी है। और उसमें भी 'ज्ञानी पुरुष' कर्ता नहीं हैं। वे निमित्त हैं। वे निमित्त होंगे तभी कार्य होगा, नहीं तो नहीं होगा। प्रश्नकर्ता : साधनामार्ग में जो गुरु होते हैं, वे लोग खुद को निमित्तभाव जैसे नहीं मानते हैं। दादाश्री : सच्ची बात है। वे उसमें खद अपने आप को मानते हैं कि मुझे इतना करना ही चाहिए, मेरे शिष्यों को इतना करना ही चाहिए। खुद बँधते हैं और शिष्य भी बँधते हैं, परन्तु बँधते-बँधते आगे बढ़ते जाते हैं, प्रगति करते हैं और, ये तो 'ज्ञानी पुरुष', वे खुद नहीं बँधते और मुक्त करवाते हैं। कर्त्ताभाव बँधवाता है और निमित्तभाव मुक्त करवाता है। पूरण-गलन और परमात्मा प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा ज्ञाता-दृष्टा मात्र है, तो कृपा-अकृपा वह मिलावट कौन करता है? किसके माध्यम से करवाता है? दादाश्री : कोई मिलावट नहीं करता, यह सबकुछ पुद्गल ही है। प्रश्नकर्ता : सब प्रेरणा पुद्गल की ही है? दादाश्री : सबकुछ पुद्गल है। पुद्गल में अहंकार भी आ गया। क्रोध-मान-माया-लोभ सभीकुछ आ गया। सारा पुद्गल पूरण-गलन होता रहता है। अहंकार भी पूरण-गलन होता रहता है। विवाह समारोह में जाओ और कोई जय-जय करे तो अहंकार का पूरण होता है, जय-जय नहीं करे तो फिर गलन होता है ! क्रोध एकदम निकले तब ५०० डिग्री का होता है, फिर ४०० होता है, ३०० होता है, २००, १००, ज़ीरो हो जाता है।

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