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आप्तवाणी-५
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देखेगा? 'स्व' तो समकित होने के बाद ही हाथ में आता है। 'स्व' हाथ में हो तो क्रोध-मान-माया-लोभ की दशा मृतप्राय हो जाती है। क्रोध-मानमाया-लोभ कषाय कहलाते हैं।
मोक्ष चाहिए तो जान की बाज़ी लगाने का खेल है। शूरवीरता अर्थात् शूरवीरता! ऊपर से एटमबोम्ब गिरे परन्तु बिल्कुल भी विचलित नहीं हो, वह शूरवीरता कहलाती है। और यदि आप शुद्धात्मा स्वरूप हो, मैंने जो स्वरूप आपको दिया है उस स्वरूप में रहो तो पानी भी छू सके, ऐसा नहीं है।
आप अब निःशंक हुए। अब आज्ञा में रहो और बुढ़ापा निकाल दो। यह देह चली जाए तो भले ही चली जाए, कान काट ले तो भले ही काट ले, पुद्गल दे देना है। पुद्गल पराया है। पराई वस्तु हमारे पास रहेगी नहीं। वह तो 'व्यवस्थित' का टाइम होगा, उस दिन चली जाएगी। इसलिए 'जब लेना हो तब ले लो' ऐसे कहना चाहिए। भय नहीं रखना है। कोई लेगा नहीं। कोई फालतू भी नहीं है। हम कहें कि 'ले लो', तो कोई लेगा नहीं, परन्तु उससे हमें निर्भयता रहती है। 'जो होना हो वह हो', ऐसा कहें।
प्रश्नकर्ता : बाहर की फाइलें इतनी अधिक परेशान नहीं करतीं, परन्तु अंदर की शाता-अशाता में एकाकार हो जाते हैं।
दादाश्री : शाता-अशाता को तो एक ओर ही रख देना चाहिए। शाता में प्रमाद हो जाता है, अजागृति रहती है। शाता-अशाता की तो बहुत परवाह नहीं करनी चाहिए। अशाता आए, हाथ में जलन हो रही हो तो हमें कहना चाहिए कि, "हे हाथ! 'व्यवस्थित' में हो तो जलो या स्वस्थ रहो।" तो जलन हो रही होगी तो बंद हो जाएगी, क्योंकि हम जला देने की बात करें, फिर क्या होगा? कभी भी सहलाना नहीं चाहिए। यह पुद्गल है। 'व्यवस्थित' के ताबे में है। उसकी अशाता वेदनीय जितनी आनी हो उतनी
आए। शूरवीरता तो चाहिए न? नहीं तो फिर भी रो-रोकर तो भुगतना ही है, इसके बदले हँसकर भोगें तो क्या बुरा है? इसीलिए तो कहा है न, "ज्ञानी वेदें धैर्य से, अज्ञानी वेदे रोकर।"