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आप्तवाणी-५
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या फिर बहुत उधार हो गया हो, वस्तुओं की मुश्किल पड़ती हो, वाइफ कहे कि 'वह चीज़ क्यों नहीं लाते?' पास में पैसे नहीं हों, तो निरी परवशता लगती है।
परवशता में से 'स्ववश' होने के लिए यह महावीर का विज्ञान है। और परवशता में से 'स्ववश' हो गए तो परवशता फिर स्पर्श ही नहीं करेगी।
प्रश्नकर्ता : आत्मा को परवशता नहीं होती है न? दादाश्री : नहीं, आत्मा को परवशता नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो शरीर लाचारी अनुभव करता है?
दादाश्री : नहीं, शरीर भी लाचारी अनुभव नहीं करता। अहंकार लाचारी अनुभव करता है।
आधार-आधारी प्रश्नकर्ता : जो होना है, वह होता ही रहता है, चाहे कुछ भी करो।
दादाश्री : जो होना है वह होता ही रहता है ऐसा बोल ही नहीं सकते। कोई गालियाँ दे, उस घड़ी चिंता नहीं होती हो तो वह ज्ञान काम का है। तुझे चिंता तो हो जाती है। पूरे हिल जाते हो। निर्बलता खड़ी हो जाती है।
प्रश्नकर्ता : चिंता किसे होती है? मुझे या मेरे आत्मा को? दादाश्री : तुझे होती है। प्रश्नकर्ता : यानी शरीर को होती है, ऐसा?
दादाश्री : तुझे खुद को, तू तेरा 'सेल्फ' जिसे मानता है, उसे होती है। 'शरीर मेरा है' ऐसा जो मानता है, उसे चिंता होती है।
प्रश्नकर्ता : 'मैं बोला, परन्तु उसमें मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।' ऐसा मैं कह दूं तो फिर चिंता का कोई प्रश्न ही नहीं है न?