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आप्तवाणी-५
दादाश्री : अज्ञानता में खुद की भूल हो गई हो, उसका खुद को पता चल जाए कि यह भूल हो गई है, फिर भी दूसरा कोई पूछे कि ऐसा क्यों किया, तो ऐसे कहता है कि ऐसा ही करने जैसा था। इतना अधिक आड़ा होता है कि पूछो मत। लोग कहते भी हैं कि आप तो आड़े हो। लोग ऐसा कहते हैं या नहीं कहते कि 'आप आड़ा बोलते हो?'
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : वही सारी आड़ाई हैं। भूल की खबर नहीं हो और उसे ढंके, वह बात अलग है। खबर हो और ढंके वह सबसे बड़ी आड़ाई। दूसरी आड़ाई वह कि रात को किसीके साथ हमारा झगड़ा हो गया हो और सुबह वह चाय देने आए तो कहे, 'मुझे तेरी चाय नहीं चाहिए और कुछ भी नहीं चाहिए।' वापिस आड़ा होता है। अरे, रात की बात रात को गई। कल शनिवार था, आज तो रविवार है। परन्तु शनिवार की बात रविवार को खींच लाता है। शनिवार की बात शनिवार में गई। रविवार की बात फिर से नई।
प्रश्नकर्ता : शनिवार की बात रविवार तक रही यानी उसका जो तंत रहा उस आड़ाई को तोड़ने का रास्ता क्या है?
दादाश्री : आड़ाई को तोड़ने की ज़रूरत नहीं है। हमें दादा की आज्ञा पालनी है। 'व्यवस्थित' को जाना तो कुछ बोलने-करने का रहा ही नहीं। 'व्यवस्थित' का अर्थ क्या? हमारी उसके साथ तकरार, झगड़ा कुछ भी नहीं रहा, वह 'व्यवस्थित'। 'व्यवस्थित' अर्थात् 'व्यवस्थित'! 'व्यवस्थित' को पूरा-पूरा समझना पड़ेगा और इस जगत् में औरों की तो भूल है ही नहीं। जितनी भूलें हैं वे सभी खुद की ही भूलों का परिणाम है। नहीं तो जेब काटनेवाला इतने लोगों में से किसीको नहीं मिला और मुझे किस तरह मिल गया? हमारी भूल के बिना मिलेगा नहीं।
दो प्रकार के इनाम हैं। एक तो लॉटरी में लाख रुपये का इनाम आए वह इनाम है, और सिर्फ हमारी ही जेब कट गई, वह भी इनाम है। सभी 'व्यवस्थित' है।