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आप्तवाणी-५
मृत्यु समय की अवस्थाएँ...... प्रश्नकर्ता : मृत्यु के समय की अवस्था समझाइए। किसीकी आंखें खुली रहती है, किसीको शौच और पेशाब हो जाता है।
दादाश्री : अंतिम समय में 'ज्ञानी' को ऐसा कुछ भी नहीं होता। ज्ञानी का आत्मा इन्द्रियों में से नहीं जाता है। वह अलग ही प्रकार से बाहर जाता है। वर्ना जो संसारी लोग हैं, जिन्हें फिर से भटकना है, उनका आत्मा इन्द्रियों में से होकर निकलता है। किसीका आँख से, किसीका मुँह से, चाहे किसी भी छेद में से निकल जाता है। पवित्र छेद में से निकले तो बहुत अच्छा और जगत् जिसे अपवित्र कहता है, वैसे छेद में से निकले तो बुरा कहलाता है। अधोगति में ले जानेवाला होता है, और कुछ संत पहले सिर पर नारियल फुड़वाते थे। शिष्यों से कहकर रखते हैं कि मैं अब बीमार हूँ, इसलिए नारियल मेरे सिर पर फोड़ना। वह तो बहुत अधोगतिवाला कहलाता है। यहाँ रहकर आत्मा निकालने के लिए प्रयत्न किया। यह सिर तो दशम स्थान कहलाता है। वहाँ से सहज स्वभाव से आत्मा निकले तो उसका प्रकाश भी अलग ही प्रकार का होता है। पूरे ब्रह्मांड में वह प्रकाश फैल जाता है।
प्रश्नकर्ता : अज्ञानियों को भी वह प्रकाश दिखता है क्या?
दादाश्री : नहीं, नहीं। अज्ञानियों को वह नहीं दिखता। ज्ञानियों को वह सब दिखता है। अज्ञानी को तो यही दिखता है, 'मेरी वाइफ, मेरी सास, मेरा मामा', यह जलेबी-लड्डू, सबकुछ दिखता है।
प्रश्नकर्ता : समाधिमरण में शरीर को पीड़ा नहीं होती न?
दादाश्री : इस शरीर की पीड़ा हो, फिर भी समाधिमरण होता है। पक्षाघात हो गया हो फिर भी मनुष्य को समाधिमरण होता है। समाधिमरण मतलब क्या कि अंतिम घंटे में ये दादा दिखने लगते हैं या फिर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान रहे, वह उसका लेखाजोखा आकर खड़ा रहा।
प्रश्नकर्ता : तो उस अवस्था में दुःख नहीं बरतता न?