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परमार्थ तक का अर्थ, वह स्वार्थ है। आत्मा संबंधी ही स्वार्थ, वह परमार्थ। ऐसे स्वार्थी तो सिर्फ आत्मज्ञानी पुरुष ही होते हैं! सांसारिक स्वार्थ में ले जाए वह सकाम और परमार्थ में ले जाए वह अकाम। धर्म अर्थात् क्या? संसार में भटकाए वह शुभधर्म और मोक्ष में ले जाए वह शुद्धधर्म। अधर्म को धक्के मारना, वह शुभधर्म है। दान, पुण्य, सेवा, मदद वगैरह पुण्य बांधते हैं, वह रिलेटिव धर्म है। और पुण्य-पाप से छुड़वाए, वह रियल धर्म है। मोक्ष अर्थात् संसार के सर्व बंधनों से मुक्त होकर सिद्धगति प्राप्त करना, वह। मुक्ति के कामी को इस जगत् में कोई बांधनेवाला नहीं है! इस जगत् का कोई कर्ता नहीं है, भगवान भी नहीं। मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स से जगत् चल रहा है।
बालकृष्ण की भक्ति से वैकुंठ मिलता है। योगेश्वर कृष्ण की भक्ति और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति से मोक्ष मिलता है। कृष्ण भगवान ने गीता में 'मैं' शब्द का 'आत्मा' के लिए ही उपयोग किया है, देहधारी कृष्ण के लिए नहीं।
ध्यान दो प्रकार के हैं : एक पौद्गलिक अर्थात् कि कुंडलिनी का, गुरु का, मंत्र वगैरह का, वह; और दूसरा आत्मा का ध्यान। वह निर्विकल्प समाधि में ले जाता है।
निर्विकल्प अर्थात् विकल्परहित दशा और निर्विचार अर्थात् विचार रहित दशा! ज्ञानी के अलावा निर्विकल्प दशा देखने को ही नहीं मिलती कहीं भी!
सांख्य और योग, उन दोनों पंखों से उड़ा जा सकता है। सांख्य अर्थात् ज्ञान जानना। मन-वचन-काया, अंत:करण के धर्म को जानना, वह सांख्य है। योग के बिना, (गुरु की) मानसिक पूजा के बिना, ऊँचा नहीं चढ़ा जा सकता।
शिव अर्थात् कल्याण स्वरूप। आधि-व्याधि और उपाधि में भी समाधि रहे, वह सच्ची समाधि! ध्यान में जो प्रकाश दिखता है वह ज्ञेय है और उसे जाननेवाला आत्मा है, और आत्मा ज्ञाता है।
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