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आप्तवाणी-५
ही करते रहना है। वे अच्छे हैं या बुरे हैं, उसका अभिप्राय आपको नहीं देना है। चाहे कैसे भी बुरे विचार आएँ, उनमें हर्ज नहीं है। जिस भाव से पूर्वबंध पड़े हुए हैं वैसे भाव से कर्म निर्जरा होती है। उसे हमें देखते रहना है कि ऐसा बंध पड़ा हुआ है, उसकी निर्जरा हो रही है। अपना यह 'ज्ञान' संवरवाला है इसलिए नया कर्म नहीं बंधता । विचारों में तन्मयाकार हो जाएँ तो कर्म बँधते हैं।
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प्रश्नकर्ता: इन विचारों का परिणाम क्या आएगा ?
दादाश्री : परिणाम ‘व्यवस्थित' को सौंप दिया है। हमें कुछ भी लेना-देना नहीं है। हमें तो आराम से गाड़ी में बैठे रहना है। मन कहे, 'गाड़ी आगे टकरा जाएगी तो?' उसे हमें देखते ही रहना है, बस । उसका परिणाम 'व्यवस्थित' को सौंपकर हमें आराम से बैठे रहना है।
प्रश्नकर्ता : इतना अधिक सरल नहीं है न यह?
दादाश्री : सरल है। जब से निश्चित करें तब से रहा जा सकता है। क्योंकि ‘व्यवस्थित' के ताबे में है । जो दूसरे के ताबे में हो, उसमें हम हाथ डालने जाएँ तो मूर्ख बनेंगे उल्टा। आपके ताबे में तो इतना ही है, 'देखना और जानना' कि हक़ीक़त में क्या हो रहा है, कुछ भी उल्टा-सीधा करना होगा, वह ‘व्यवस्थित' करेगा । वास्तव में 'व्यवस्थित' ऐसा नहीं होता है कि कुछ बिगड़े। मनुष्य सत्तर वर्ष की उम्र में मरता है, परन्तु उससे पहले तो ‘मर गया, मर गया' ऐसा बेकार ही चिल्लाता रहता है । और भय से त्रस्त रहता है। जगत् ऐसे भयभीत रहने जैसा है ही नहीं । मन हमें भी दिखाता है कि ‘आगे एक्सिडेन्ट हो जाएगा तो ? ' तो हम कहते हैं कि तूने कहा मैंने उसे नोट कर लिया । फिर वह दूसरी बात करता है । मन को ऐसा नहीं है कि पिछली बात को ही पकड़कर रखे । मन के साथ तन्मयाकार नहीं होना है। तन्मयाकार होने से तो पूरा जगत् उत्पन्न हुआ है । मन के भाव सारे डिस्चार्ज हैं। उन डिस्चार्ज भावों में यदि हम कभी तन्मयाकार हो जाएँ तो चार्जभाव उत्पन्न होते हैं । हमें एलिवेशन या डिप्रेशन सिर पर नहीं लेना है। कुछ भी होनेवाला नहीं है, कुछ भी बिगड़ता नहीं है। मैं क्षणभर के लिए