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आप्तवाणी-५
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प्रश्नकर्ता : वाणी में जो उतरे, तो वह उतने अंश तक बौद्धिक हुआ नहीं कहलाएगा?
दादाश्री : नहीं, ऐसा कोई नियम नहीं है । वाणी में तो 'डायरेक्ट' प्रकाश सारा ही उतरता है और 'इनडायरेक्ट' भी सारा ही उतरता है । वाणी का उससे कोई लेना-देना नहीं है ।
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प्रश्नकर्ता : ‘डायरेक्ट' प्रकाश पहुँचाने के लिए माध्यम की मर्यादा वाणी के लिए बाधक है या नहीं?
दादाश्री : 'डायरेक्ट' प्रकाशवाली वाणी स्याद्वाद होती है। किसीको किंचित् मात्र दुःख नहीं हो, ऐसी वह वाणी होती है। बुद्धिवाली वाणी से किसीको दुःख हो जाता है, क्योंकि बुद्धिवाली वाणी में अहंकार रूपी 'पोइज़न' होता है ।
प्रश्नकर्ता : वीतराग वाणी हो परन्तु सामने ग्रहण करनेवाली बुद्धि हो, तो वह वीतरागता को समझ सकेगी क्या?
दादाश्री : बुद्धि समझ सकती है, परन्तु वह खुद अपने आप नहीं समझ सकती। वह तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास सम्यक् हो जाए, तब ग्रहण कर सकती है।
प्रश्नकर्ता : ग्रहण करनेवाला जो होता है, वह तो उसकी बौद्धिक शक्ति से ग्रहण करता है न? या उसकी मर्यादा होती है फिर ...
दादाश्री : हाँ, वह बौद्धिक शक्ति से ग्रहण करता है परन्तु 'ज्ञानी पुरुष' की उपस्थिति में ही बुद्धि वह पकड़ सकती है, और किसी जगह पर बुद्धि पकड़ नहीं सकती। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' की उपस्थिति में निकली हुई वाणी आवरणों को भेदकर 'डायरेक्ट' आत्मा तक पहुँचती है और आत्मा को पहुँचती है, इसलिए तुरन्त आपके मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार पकड़ लेते हैं । हमारी वाणी आत्मा में से होकर निकली हुई होती है । जगत् की वाणी मन में से होकर निकली हुई होती है । इसलिए उसे मन ‘एक्सेप्ट' करता है और यहाँ आत्मा 'एक्सेप्ट' करता