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आप्तवाणी-५
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परन्तु वे ज्ञान के अनुभव से, केवळज्ञान से 'जानते' हैं।
मन को यदि डिस्चार्ज नहीं करे तो वह वापिस साथ में आएगा, माल-सामान साथ में आएगा। इसके बदले तो खाली हो जाने दो न। एक नियम ऐसा है कि वह खाली हो ही जाएगा। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, वे चार इकट्ठे हो जाएँ, तो वह खाली हो ही जाएगा, नियम से ही।
आत्मा परम सुखी है। अशाता तो देह देती है, मन देता है, वाणी देती है। कोई कुछ कह जाए तो भी अशाता वेदनीय होती है।
प्रश्नकर्ता : देह की वेदनीय हो, तब चित्त उसमें अधिक चला जाता
है।
दादाश्री : हाँ। चित्त वहीं के वहीं मंडराता रहता है। हम उसे कहें कि बाहर ज़रा घूमकर आ जा, फिर भी नहीं जाता। घर में ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : उससे फिर बंध नहीं पड़ता?
दादाश्री : नहीं। वेदना भोग लेनी है। भोगे बिना चारा ही नहीं। बंध तो कर्ता बन जाए, तब पड़ता है। कर्ता मिटे तो छूटें कर्म।
चित्त की शुद्धता - सनातन वस्तु में एकता
पुलिसवाला चिल्लाता हुआ आए, हथकड़ी लेकर आए, फिर भी हमें कुछ भी असर नहीं हो, वह विज्ञान !
प्रश्नकर्ता : तो फिर चित्त किसमें रखना चाहिए?
दादाश्री : चित्त स्वयं के स्वरूप में रखना है। जो शाश्वत हो उसमें चित्त रखो। चित्त सनातन वस्तु में रखना है। मंत्र सनातन वस्तु नहीं हैं। एक आत्मा के अलावा इस जगत् में कोई भी वस्तु सनातन नहीं है। दूसरा सबकुछ टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट है! ऑल दीज़ रिलेटिव्स आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स!
सिर्फ आत्मा अकेला ही परमानेन्ट है। सनातन वस्तु में चित्त स्थिर हो गया, फिर वह भटकता नहीं है और तब उसकी मुक्ति होती है। मंत्रों