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आप्तवाणी-५
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प्रश्नकर्ता : थोड़ी देर तक होता है।
दादाश्री : तब तो आप 'चंदूभाई' हो। व्यवहार से 'चंदूभाई' हो तो आपको कुछ भी स्पर्श नहीं करेगा।
प्रश्नकर्ता : यदि ऐसा हो तब तो हममें और दूसरों में फर्क ही क्या? गलत वस्तु को त्यागना ही चाहिए। धीरे-धीरे इतना प्रयत्न करते जाएँ तो फर्क पड़ता जाता है।
दादाश्री : यदि मोक्ष में जाना हो तो गलत-सही के द्वंद्व निकाल देने पड़ेंगे, और यदि शुभ में आना हो तो गलत वस्तु का तिरस्कार करो और अच्छी वस्तु पर राग करो, और शुद्ध में अच्छे-बुरे दोनों के ऊपर राग-द्वेष नहीं। वास्तव में अच्छा-बुरा है ही नहीं। यह तो दृष्टि की मलिनता है, इसलिए यह अच्छा-बुरा दिखता है और दृष्टि की मलिनता, वही मिथ्यात्व है, दृष्टिविष है। हम दृष्टिविष निकाल देते हैं।
विनय और परम विनय वीतरागों का पूरा मार्ग ही विनय का मार्ग है। इस विनयधर्म की शुरूआत ही हिन्दुस्तान में से होती है। हाथ जोड़ने की शुरूआत यहाँ से ही होती है, वह इससे लेकर ठेठ साष्टांग दंडवत् तक जाती है। विनयधर्म तो अपार है, और परम विनय उत्पन्न हो जाए तब मोक्ष होता है।
प्रश्नकर्ता : ‘परम विनय' समझाइए।
दादाश्री : जहाँ वाद-विवाद नहीं हो, दख़ल नहीं होता, जहाँ नियम नहीं होता। नियम हो वहाँ पर परम विनय नहीं सँभाल पाएगा और हमें नियम के बंधन में रहना पड़ेगा। हम तो 'व्यवस्थित' जो करे, उसे देखनेवाले हैं। और कुछ हमें कहाँ पुसाता है?
'रिलेटिव' धर्मों में भी जहाँ विनय है वहाँ मोक्षमार्ग है और विनय यदि टूटे नहीं तो मोक्ष ही है।
प्रश्नकर्ता : विनय और परम विनय में क्या फर्क है?