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आप्तवाणी-५
इसमें ज़रूरत है। चौबीस तीर्थंकर कहते आए हैं कि आत्मज्ञान के लिए निमित्त की ज़रूर है। 'ज्ञानी' कर्ता नहीं होते। मैं यदि कर्ता होऊँ, तो मुझे कर्म बँधेगे और आप निमित्त मानो तो आपको पूरा-पूरा लाभ नहीं होगा। मुझे तो 'मैं निमित्त हूँ' ऐसा मानना है और आपको 'ज्ञानी द्वारा हुआ' ऐसा विनय रखना है! हर किसीकी भाषा अलग होती है न?
परम विनय से मोक्ष है।
आत्मा प्राप्त हो गया, खुद के स्वभाव में आ गया, जागृत हो गया, खुद के धर्म में आ गया, फिर बाकी क्या रहा? बाकी सब तो धर्म में है ही, सिर्फ आत्मा ही धर्म में नहीं था।
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञान' मिलने के बाद दादा, यह शर्त हर एक को क़बूल हो जाती है?
दादाश्री : 'ज्ञान' मिलने के बाद तो अपने आप क़बूल होगी ही न? 'ज्ञान' मिलने से पहले किसीको भी क़बूल नहीं होती। फिर किसलिए क़बूल हो जाती है, वह आपको समझाता हूँ। यह जलेबी खिलाने के बाद चाय पिलाएँ तो उसमें क्या फ़र्क आता है?
प्रश्नकर्ता : चाय का स्वाद फीका लगता है।
दादाश्री : यह मैं आपके आत्मा को उसके स्वभाव में अर्थात् उसे खुद के गुणधर्म में ले आता हूँ। इसलिए ये दूसरे सब विषय फीके लगने से आसक्ति खत्म हो जाती है। अब पहले से ही यदि आपको आसक्ति खत्म करने को कहें तो?
प्रश्नकर्ता : तो यहाँ कोई आएगा ही नहीं।
दादाश्री : इसलिए पहले आत्मा को आत्मधर्म में लाना चाहिए। अक्रम में पहले यह है। जब कि क्रमिक में पहले आसक्ति निकालनी है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् अधर्म निकालना चाहिए? दादाश्री : अधर्म शब्द की हमें ज़रूरत नहीं है। अधर्म क्या है?