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आप्तवाणी-५
आधा पैर टूट गया हो तो हम कहें, चलो डेढ़ तो रहा न! फिर आधा चला जाए, तब हम कहें कि दो के बदले एक तो रहा न? ऐसे करते-करते अंत में सभी पार्ट्स टूट जाएँ, तब अंत में हम आत्मा तो हैं न? अंत में तो सभी पार्ट्स टूट ही जाएँगे न? पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दो तो भी हम आत्म स्वरूप हैं! कभी न कभी जलेगा ही न! नहीं जलेगा? थोड़ा अभ्यास ही करने की ज़रूरत है। नंगे पैर महाराज किस तरह चलते हैं? किसान किस तरह चलते हैं? दो-चार बार हम जल जाएँ तो सभी अपने आप रास्ते पर आ जाता है। वर्ना एक (दवाई की) गोली से वेदना शांत हो जाए, उसे वेदना ही कैसे कहेंगे? सौ-सौ गोलियाँ खाए तो भी वेदना शांत नहीं हो, उसे वेदना कहते हैं।
अब तो अपना कुछ नहीं है। 'ज्ञानी पुरुष' को सबकुछ समर्पित कर दिया। मन-वचन-काया और सर्व माया, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म सबकुछ ही अर्पण कर दिया। फिर आपके पास कुछ भी बाकी नहीं रहता।
__महावीर का वेदन-स्वसंवेदन प्रश्नकर्ता : ‘ज्ञानी वेदें धैर्य से, अज्ञानी वेदे रोई।' तो ज्ञानी भी वेदते तो हैं न?
दादाश्री : वेदना तो जाती ही नहीं न! परन्तु वे वेदना को धैर्य से वेदते हैं, हर एक व्यक्ति का अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार धैर्य होता है। हालाँकि भगवान महावीर सिर्फ जानते ही थे। एक खटमल उन्हें काटे तो उसे वे सिर्फ 'जानते' ही थे, वेदते नहीं थे। जितना अज्ञान भाग है, उतना वेदते हैं। आप श्रद्धा से शुद्धात्मा हुए हो, अब 'ज्ञान' के अनुभव से आत्मा हो जाओगे, तब सिर्फ 'जानना' ही रहेगा। तब तक वेदन है ही। वेदन के समय तो हम आपसे कहते हैं न कि दूर बैठना, अपने 'होम डिपार्टमेन्ट में!' ज़रा-सा भी हिलना-डुलना नहीं, चाहे जितनी घंटियाँ बजाए फिर भी 'होम डिपार्टमेन्ट' मत छोडना। भले ही घंटियाँ मारे! बारह सौ घंटियाँ मारे तो भी हम किस लिए अपना 'ऑफिस' छोड़ दें?
शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय तो तीर्थंकरों को भी आते हैं,