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आप्तवाणी-५
शुद्ध चिद्रूप प्रश्नकर्ता : चित्त की शुद्धि किस तरह होती है?
दादाश्री : यह चित्त की शुद्धि ही कर रहे हो न? चित्त का अर्थ लोग अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं, चित्त नाम की वस्तु कुछ अलग है ऐसा समझते हैं। चित्त अर्थात् ज्ञान-दर्शन मिलाने से जो भाव उत्पन्न होता है वह। चित्त की शुद्धि करनी अर्थात् ज्ञान-दर्शन की शुद्धि करनी। शुद्धात्मा को क्या कहते हैं? शुद्ध 'चिद्रूप'। जिसका ज्ञान-दर्शन शुद्ध हुआ है, ऐसा जो स्वरूप खुद का है, वही शुद्ध चिद्रूप है।
प्रश्नकर्ता : जिसे हम सच्चिदानंद कहते हैं वह?
दादाश्री : सच्चिदानंद तो अनुभवदशा है और यह शुद्धात्मा वह प्रतीति और लक्ष्य दशा है। वही की वही वस्तु, शुद्ध चिद्रूप और शुद्धात्मा, एक ही चीज़ है। हम स्वरूप का 'ज्ञान' देते हैं तब आपका चित्त संपूर्ण शुद्ध हो जाता है। अब सिर्फ यह बुद्धि ही परेशान करती है, वहाँ सँभाल लेना है। बुद्धि को सम्मानपूर्वक वापिस भेज देना। जहाँ खुद का स्वरूप है, वहाँ पर अहंकार नहीं है। कल्पित जगह पर 'मैं हूँ' बोलना वह अहंकार और मूल जगह पर 'मैं', उसे अहंकार नहीं कहते। वह निर्विकल्प जगह है।
मनुष्य में 'मैं-तू' का भेद उत्पन्न हुआ, इसलिए कर्म बाँधता है। कोई जानवर बोलता है कि 'मैं चंदूलाल हूँ?' उसे यह झंझट ही नहीं न? अर्थात् यह आरोपित भाव है, उससे कर्म बँधते हैं।
निर्-अहंकार से निराकुलता जहाँ अहंकार शून्यता पर है वहाँ निराकुलता प्राप्त होती है। जब तक अहंकार शून्यता पर नहीं आ जाता, तब तक निराकुलता एक क्षणभर के लिए भी प्राप्त नहीं होती। चैन प्राप्त होता है। चैन और निराकुलता में बहुत फर्क है।
प्रश्नकर्ता : वह फर्क समझाइए। दादाश्री : अहंकार जाने के बाद निराकुलता उत्पन्न होती है और,