Book Title: Aptavani Shreni 05
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 196
________________ आप्तवाणी-५ १६५ एक कर्म का उदय हुआ और उसका विचार आया, फिर वह कर्म चला जाता है, फिर वापिस दूसरा कर्म उदय में आता है। इस प्रकार उदय और अस्त होते रहते हैं। किसी जगह पर रुकते नहीं हैं। उनकी मन की ग्रंथियाँ सब खत्म हो चुकी होती हैं, इसलिए उन्हें विचार परेशान नहीं करते! हमें भी विचार परेशान नहीं करते! विचार तो मन का धर्म है। एक विचार आए और जाए और कुछ भी स्पर्श नहीं करे, उसे मनोलय ही कहा जाता है। मन का तूफ़ान नहीं होता। मन बगीचे जैसा लगता है, गर्मी में फुहारें उड़ती रहती हों वैसा लगता है, और निर्विकल्प तो बहुत ऊँचा पद है। कर्त्तापद का भान टूटा वह निर्विकल्प हुआ। देहाध्यास जाने के बाद निर्विकल्प पद आता है। प्रश्नकर्ता : समाधि और सुषुप्त अवस्था के बारे में कहिए। दादाश्री : आज हमारे देश में जिसे समाधि मानते हैं, वे सुषुप्त अवस्था को ही समाधि कहते हैं। कुछ महात्मा मन के 'लेयर्स' (परतें) में गहरे उतर जाते हैं। कोई बुद्धि के लेयर्स में उतर जाता है। उस समय बाहर का भान भूल जाते हैं, उसे लौकिक समाधि कहा जाता है। समाधि किसे कहते हैं? अखंड जागृतिपूर्वक की समाधि का नाम समाधि! शरीर के ऊपर धूल का एक कण भी गिर गया हो तो पता चल जाए, उसे समाधि कहते हैं। अपने यहाँ लोग हेन्डल मारकर समाधि करने जाते हैं, उसे समाधि नहीं कहते। वह कल्चर्ड समाधि कहलाती है। सच्ची समाधि मझे निरंतर रहती है। आधि-व्याधि-उपाधि में भी समाधि रहती है वह सच्ची समाधि! अभी मुझे जेल में डालने के लिए पकड़कर ले जाए तो भी मेरी समाधि जाएगी नहीं! ऐसी ही दशा रहेगी! यहाँ पर मुक्त है उसमें भी समाधि है, वहाँ जेल में भी समाधि है। प्रश्नकर्ता : ध्यान करने से प्रकाश का अनुभव होता है, वह मानसिक होता है या वास्तव में? दादाश्री : वह प्रकाश ही नहीं है, वह तो कल्पना है। इन सभी कल्पनाओं को ही सत्य माना है।

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