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आप्तवाणी-५
होता है। उसका स्वाद भी मिलता है और उसकी मार भी पड़ती है। वह राग-द्वेषवाला ज्ञान है और यह वीतरागी ज्ञान है। यह जानने-देखने के साथ ही वीतरागता रहती है और उसे जानते और देखते ही राग-द्वेष होते हैं।
द्रव्यचोर - भावचोर मन पिछले अवतार का संकुचित फोटो है।
एक मनुष्य 'ऑफ़िसर' (अधिकारी) होता है। उसकी 'वाइफ' उसे कहे कि 'आप रिश्वत नहीं लेते हैं। ये सभी लोग लेते हैं और उन्होंने बंगले बनवा लिए।' अब ऐसा बहुत बार हो तो वह मन में निश्चित करता है कि अरे, मैं भी लूँगा अब से!
परन्तु रिश्वत लेने जाए, उससे पहले ही वह काँप जाता है, और ली नहीं जा सकती। मन सिर्फ निश्चित करता है कि अब से लो। अर्थात् उसने भाव बदला, परन्तु उससे पूरी ज़िन्दगी लिया नहीं जा सकता क्योंकि पहले के ज्ञान के आधार पर मन है। मन, वह गतज्ञान का फल है। अब अभी नया ज्ञान उत्पन्न किया कि रिश्वत लेनी चाहिए। वह ज्ञान अब उसे अगले जन्म में रिश्वत लेने देगा।
दूसरा ऑफ़िसर हो वह इस जन्म में रिश्वत लेता है, परन्तु मन में उसे ऐसे भाव होते रहें कि, 'ये रिश्वत लेते हैं वह गलत हैं। ऐसा क्यों लेता हूँ?' उससे अगले जन्म में रिश्वत नहीं ली जाएगी। और एक पैसा भी नहीं लेता फिर भी लेने के भाव है, उसे भगवान पकड़ते है। वह अगले जन्म में चोर बनेगा और संसार का विस्तार करेगा।
प्रश्नकर्ता : और जो पछतावा करता है, वह छूट रहा है?
दादाश्री : हाँ, वह छूट रहा है। इसलिए वहाँ कुदरत के घर पर न्याय अलग प्रकार का है। यह जैसा दिखता है वैसा वहाँ पर नहीं है, वह बात आपकी समझ में आ रही है?
प्रश्नकर्ता : अर्थात् भाव भी निकाल देना चाहिए, ऐसा? दादाश्री : भाव ही निकाल देना है। भाव की ही उठापटक है, यह