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आप्तवाणी-५
दादाश्री : तो अभी तक क्यों वह जाना नहीं?
प्रश्नकर्ता : हमेशा यही उलझन होती थी कि 'मैं कौन हूँ', परन्तु उसका पता नहीं चलता था।
दादाश्री : 'मैं चंदूलाल हूँ, इस स्त्री का पति हूँ, इसका फादर हूँ, इसका मामा, चाचा', वे सब ‘रोंग बिलीफ़' हैं। वे 'रोंग बिलीफ़' 'ज्ञानी पुरुष' 'फ्रेक्चर' कर देते हैं और 'राइट बिलीफ़' बिठा देते हैं। तब हमें समकित दृष्टि मिली कहलाती है।!
विपरीत ज्ञान - सम्यक् ज्ञान पहले विपरीत ज्ञान जानने का प्रयत्न था, उससे बंधन में आ जाते हैं। अब सम्यक् ज्ञान जानने का प्रयत्न है। यह 'खुद का' है। इससे स्वतंत्र हुआ जाता है। वह भी ज्ञान है इसलिए जानने का 'टेस्ट' आता है (रुचि होती है), परन्तु वह परावलंबी है, किसीका अवलंबन लेना पड़ता है। और सम्यक् ज्ञान खुद को स्वसुख देनेवाला है, स्वावलंबनवाला और स्वतंत्र बनानेवाला है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान तो एक ही प्रकार का होता है न? आत्मा ही ज्ञान है, तो फिर विपरीत ज्ञान और यह ज्ञान अलग-अलग कैसे हो सकते है?
दादाश्री : विपरीत अर्थात् जिसकी ज़रूरत नहीं है, उस ज्ञान में पड़े। प्रश्नकर्ता : परन्तु उसे ज्ञान कहेंगे?
दादाश्री : ज्ञान ही कहेंगे न? अज्ञान किस आधार पर कहा है? कि 'यह हितकारी नहीं है', इसलिए अज्ञान कहा है।
प्रश्नकर्ता : इसलिए उसे अज्ञान ही कहेंगे न? ज्ञान नहीं कहेंगे न? दादाश्री : जगत् की दृष्टि से तो सभी ज्ञान ही है न?
जो सांसारिक सबकुछ जानने का प्रयत्न है, वह मिथ्या ज्ञान है। उल्टी श्रद्धा बैठी इसलिए उल्टा ज्ञान उत्पन्न होता है और उल्टा चारित्र उत्पन्न