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आप्तवाणी-५
यह देह भी मेरी है, ऐसा दस्तावेज फाड़ चुके होते हैं। इसलिए फिर क्या कहते हैं-'यह पब्लिक ट्रस्ट हैं।' इसलिए हमें यदि अभी दाढ़ दुःखे तो असर होता है, परन्तु उसे 'हम' 'जानते' हैं, उसका वेदन नहीं करते। जब कि कोई हमें गालियाँ दे, अपमान करे, पैसे का नुकसान हो जाए उसका हम पर ज़रा-भी असर नहीं होता। हमें मानसिक असर बिल्कुल नहीं होता। शरीर को लगता है, तो वह उसके धर्म के अनुसार असर दिखाएगा। परन्तु 'हम' खुद उसके 'ज्ञाता-दृष्टा' ही होते हैं। इसलिए हमें दुःख स्पर्श नहीं करता।
प्रश्नकर्ता : इसे वीतराग पुरुष की तादात्म्यपूर्व तटस्थता कही जाएगी, या सिर्फ तटस्थता कही जाएगी? ।
दादाश्री : हमें तादात्म्य बिल्कुल नहीं होता। हमारा इस देह के साथ भी पड़ोसी जैसा संबंध होता है, इसलिए देह को असर हो तो हमें कुछ भी स्पर्श नहीं करता। मन तो हमारा ऐसा होता ही नहीं। वह कैसा होता है? प्रति क्षण फिरता ही रहता है। एक जगह पर स्थिर नहीं रहता।
प्रश्नकर्ता : यानी कि 'पड़ोसी' के दुःख से खुद दुःखी नहीं होते।
दादाश्री : किसीके भी दुःख से दुःखी नहीं होते। खुद का स्वभाव दुःखवाला है ही नहीं, बल्कि 'इनके' (दादाश्री के) स्पर्श से सामनेवाले को सुख हो जाता है।
जगत् में अध्यात्म जागृति प्रश्नकर्ता : अंतिम पाँच वर्षों से लोगों में अध्यात्म की तरफ़ प्रगति बढ़ती हुई दिखती है, तो वह क्या सूचित करता है?
दादाश्री : वह क्या सूचित करती है कि पहले आध्यात्मिक वृत्ति बिल्कुल खत्म हो गई थी, इसलिए अब बढ़ती हुई दिखती है। यह सब काल के अनुसार ठीक ही है। दूसरा यह है कि ये दुःख इतने अधिक बढ़ेंगे कि इनमें से लोगों के लिए निकलना मुश्किल हो जाएगा! तब फिर लोगों को वैराग्य आ जाएगा। यों ही तो लोग अपनी मान्यता छोड़ दें, ऐसे नहीं हैं न?