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आप्तवाणी-५
वस्तु की बात नहीं है। हक़ीक़त में क्या हुआ, उससे लेना-देना नहीं है भगवान के वहाँ। भाव - वह 'चार्ज' है, और जो वास्तव में होता है वह 'डिस्चार्ज' है।
प्रश्नकर्ता : 'अक्रम ज्ञान' में भाव का क्या स्थान है?
दादाश्री : अक्रम में तो भाव भी नहीं है और अभाव भी नहीं है। उन दोनों से दूर हो गए। भाव और अभाव से संसार खड़ा होता है, 'रिलेटिव डिपार्टमेन्ट' खड़ा होता है। 'अक्रम विज्ञान' से भाव-अभाव उड़ जाते हैं, इसलिए नया 'चार्ज' होना बंद हो जाता है और जो 'चार्ज' किया था, वह 'डिस्चार्ज' होना बाकी रहता है। यानी कि 'कॉज़' बंद हो गए और 'इफेक्ट' बाकी रहते हैं। 'इफेक्ट', वह परिणाम है।
पूरा जगत् परिणाम में ही कलह कर रहा है। फेल हो जाए उसकी कलह नहीं होनी चाहिए। पढ़ते समय हमारी कलह होनी चाहिए, कि भाई पढ़, पढ़! उसे टोको, डाँटो परन्तु फेल होने के बाद में तो उसे कहना कि 'बैठ भाई, खाना खा ले ! सूरसागर (बरोड़ा का एक तालाब) में डूबने मत जाना!'
प्रश्नकर्ता : किस भूल के आधार पर ऐसे भाव हो जाते हैं? उदाहरण के तौर पर रिश्वत लेने का भाव होना।
दादाश्री : वह तो उसके ज्ञान की भूल है। सही ज्ञान क्या है, उसका उसे 'डिसीज़न' नहीं है। अज्ञानता के कारण भाव होते हैं, क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इस दुनिया में ऐसा नहीं करूँगा तो मेरी दशा क्या होगी? यानी उसे खुद के ज्ञान पर से भी निश्चय टूट गया है। खुद का ज्ञान गलत है ऐसा वह जानता है। अब, यह ज्ञान, वह मोक्ष का ज्ञान नहीं है। यह व्यवहार का ज्ञान है। और 'टेम्परेरी' रूप में ही होता है कि जो संयोगवश निरंतर बदलता ही रहता है।
संसारप्रवाह जीव मात्र प्रवाह स्वरूप है। जैसे नर्मदाजी का पानी बहता रहता है,