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आप्तवाणी-५
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परन्तु झंझट किए बगैर रहता ही नहीं न?
प्रश्नकर्ता : तो आपके हिसाब से सत्संग भी बेकार का झंझट ही है न?
दादाश्री : हाँ, झंझट ही कहलाएगा। यह करने की ज़रूरत ही नहीं है। यह तो गृहित मिथ्यात्व के कारण उल्टा किया है, इसलिए सीधा करना पड़ रहा है। चाय-चीनी धीरे-धीरे पिघलती ही रहती है न? उसी प्रकार यह आत्मा धीरे-धीरे मोक्ष की तरफ ही जा रहा है।
सत्संग भी अंत में आपसे क्या कहता है? कुछ करना मत। जो परिणाम हो उसे देखते रहो।
नियतिवाद प्रश्नकर्ता : सब 'व्यवस्थित' हो तो करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। विरोधाभास लगता है।
दादाश्री : यह सब 'व्यवस्थित' ही है। प्रश्नकर्ता : तो वह नियतिवाद हुआ या सबकुछ निश्चित ही है?
दादाश्री : नहीं, नियतिवाद होता, तब तो वह आग्रह हो गया। हम जीत गए ऐसा वह कहेगा, फिर तो नियति भगवान ही मानी जाएगी। सिर्फ नियति ही एकेला कारण नहीं है। समुच्चय कारणों से हुआ है। इसलिए हम कहते हैं कि 'ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' (सिर्फ वैज्ञानिक संयोगिक प्रमाण) है। नियतिवाद होता तब तो आराम हो जाता! नियतिवाद अर्थात् यहाँ से समुद्र में डाला, तो किनारे पर पहुँचेगा ही।
प्रश्नकर्ता : नियतिवाद अर्थात् प्रारब्धवाद ऐसा कहा है।
दादाश्री : प्रारब्ध और नसीब, वे नियति नहीं हैं। नियति अलग वस्तु है। नियति अर्थात् इस संसार के जीवों का जो प्रवाह चल रहा है वह किसी नियति के नियम का अनुसरण करके चल रहा है, परन्तु दूसरे बहुत सारे कारण आते हैं, जैसे कि काल है, क्षेत्र है।