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(२०) प्रावो त्याग धारे अगर त्यागे छे; छतां तेमां धर्मनो गंध साक्षात देखातो नथी, एटले नितान्त बाह्यत्याग ए मनोहर त्याग न ज कहेवाय. प्राचार्यश्री एज वातने उत्तरार्द्धथी सचोट दृष्टान्त पापी सिद्ध करे छे. व्यवहारमा प्रा वात प्रसिद्ध छे के-सर्प पोताना उपरनी कांचली उतारी नांखे छे, परंतु एतावन् मात्रयी साप लेश पण विषरहित बनतो नथी किन्तु विषधारीज रहे छे. एवं आभ्यंतर त्याग विना बाह्यत्यागी साचो त्यागी, सत्य साधु कहेवाय नहीं-धर्मी कहेवाय नहीं. निदान ए के-लोकोने जे न्यागर्नु भान, श्रा त्यागी पुरुष छे एवी बुद्धि बाह्यवेशथी उपजे छे, ते केवल लोकोनो त्याग प्रतिनो अद्भूत प्रेम. साधुओ प्रति पोतानो साचो पक्षपात, अने साधुनो त्यागी छे एवी पोतानी दृढ मान्यताने लीधे ज अथवा लोकोनी भद्रप्रकृति, कारण के-लोको धर्म पण तुरत ज पामे छे, अने बाह्यत्यागीमा ज्यारे गोटाळो देखे छे त्यारे अधर्म पण तेथी अधिक पामे छे, पाथी बालवर्गने जे बाह्यवेशथी धर्म प्राप्त थाय एटला मात्रथी ते धर्म्य छ, प्रधान छे, एम न कही शकाय. निष्कर्ष एके-आभ्यंतर त्यागपूर्वक बाह्य वेश ज धर्मप्राप्तिमा मुख्य कारण बने छे एम जाणवू । केवळ बाह्य वेश तो अप्रधान ज कह्यो छे.
फरी एज वातने आचार्यश्री अन्य मतना प्रमाणथी पुष्ट करी अधिक सिद्ध करे छेमिथ्याचारफलमिदं
ह्यपरैरपि गीतमशुभभावस्य ।