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( १९ ) मृलार्थ-बाह्य परिग्रहनो त्याग करवाथी कांइ मनोहर त्याग कहेवाय नहीं, कारण के ग्रावो त्याग तो जानवरोने अथवा वेशधारीनोने पण होय छे, पण त्यां धर्म देखातो नथी, सांप कांचळी मात्रने छोडी देवाथी कांइ निर्विष बनतो नशी।। बाह्य त्याग ते अत्याग सांपर्नु दृष्टांत
स्पष्टीकरण-ग्रंथ एटले परिग्रह. आ परिग्रह बाह्य अने आभ्यंतर एम बे प्रकारनो कहेवाय छे धन, धान्य, कुटुंब, घर विगेरे वाह्य, तथा लोभ, मोह, प्रेम, आसक्ति, तृष्णा विगेरे आभ्यंतर परिग्रह जाणवो. आचार्यश्री कहे छे के-आ धन, कुटुंब, घर आदिनो वाह्य परिग्रह केवल छोडवाथी-त्यागवाथी काइ धर्मीपणुं आत्माने प्राप्त थतुं नथी, कारण के आ रीते बाह्य त्याग करवा छतां आभ्यंतर त्याग तो न ज होय, किन्तु दुष्ट अनेक वासनाओ, पुद्गलभावनो अद्भूत मोह, मान, पूजा, प्रतिष्ठा अने कीर्तनो लोभ, अनिष्ट तथा अप्रीतिवर्द्धक पदाथेनो द्वेष, विषयोनी आसक्ति एवं तृष्णा यथावत् बनी रही होय तो ते त्याग ज न कहेवाय; परंतु ते मोह ज छ-उपरनो
आडंबर ज कहेवाय-लोकरंजन बाह्याचार ज कहेवाय. आथी ज अहीं धर्मीपणानी गंघमात्रा पण नथी होती, किन्तु आवो त्याग तो केवल पापप्रकृतिना उदयनुं फल जाणवू. जन्मांतरमां भ्रमण करावनार कर्मबंधक ा त्याग जाणवो, एवं आवा त्यागथी जो त्यागीपणुं-सत्य साधुपणुं सुलभ होय, धर्मीपणुं आत्माने मलतुं होय, तो श्वान आदि अने धूर्त मनुष्यो पण