Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 21
________________ विभज्यवाद का प्रतिपादन किया और महावीर ने अनेकान्त का। अनेकान्त के मूल दो तत्त्व हैं—पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर यथार्थ रूप से पारित हुआ है, वही सत्य कहलाता है। वस्तु का पूर्ण रूप त्रिकाल-बाधित है, इसलिए यथार्थ का दर्शन कठिन है और उसे शब्दों में ठीक-ठीक अंकित करना तत्त्व-दृष्टि के लिए कठिन है। फिर हमारे पास राग और द्वेषजन्य संस्कार भी होते हैं। किसी विशेष को ही सत्य मान लेना और बाकी सब को मिथ्या समझना एक प्रकार का आग्रह ही नहीं, दुराग्रह भी है। इसलिए, व्यवहार में अनेकान्त का पालन अनन्त कलहों के अनिष्ट का निवारण करता आज के युग में अहिंसा परमार्थ और मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि जीवन और मानव-अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य है। हिंसा-शक्ति का चरमोत्कर्ष आणविक शक्ति में हो चुका है और आणविक युद्ध का अर्थ है सृष्टि का सत्यानाश ! इसलिए या तो हम अहिंसा को स्वीकार करें या फिर हिंसा से नष्ट हो जाने के लिए तैयार रहें । दुःख की बात तो यह है कि हम आकांक्षा तो शान्ति की रखते हैं और आयोजन युद्ध का करते हैं। लेकिन बाह्य जगत् में जो युद्ध होते हैं, उसका तो प्रारम्भ हमारे मानस में ही होता है। इसलिए बाह्य जगत् की हिंसा को रोकने के पूर्व हमें मानस हिंसा के निवारण का कोई उपाय करना चाहिए। इस दृष्टि से हमें मन में किसी प्रकार का बौद्धिक आग्रह नहीं रखना चाहिए। बौद्धिक आग्रह से ही हिंसा की अग्नि प्रज्वलित होती है । २१वीं शताब्दी में यदि हम एक अहिंसक विश्व की सृष्टि करना चाहते हैं तो हमें अनेकान्त के जीवन-दर्शन का आचरण करना होगा। अनेकान्त कोई शब्दाडम्बर नहीं है, कोई धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं है. यह तो स्वतन्त्र समाज की संरचना का जीवन-दर्शन है। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में इसी अनेकान्तवाद को हम सह-अस्तित्व या तटस्थता के सिद्धान्त के रूप में देख सकते हैं। जिसे हम 'जियो और जीने दो' का सिद्धान्त कहते हैं, वही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में सह-अस्तित्व कहलाता है। सामाजिक जीवन में उसे ही हम सहजीवन कहते हैं। धर्म के क्षेत्र में वही सर्वधर्म-समभाव कहलाता है । इसलिए जैन धर्म २१वीं शताब्दी का विश्वधर्म है। अनेकान्त-आधारित अहिंसा भगवान् महावीर के समय में जितनी प्रासंगिक थी, उससे आज कहीं अधिक प्रासंगिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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