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सम्यग्दर्शन
भी है कि जिसने वस्तु व्यवस्था को ही विकृत कर दिया है; वे द्रव्य और पर्याय को इस हद तक अलग मानते हैं कि मानो वे दो अलग द्रव्य हों! वे एक अभेद द्रव्य में कल्पना करके बतलाये हुए गुण-पर्याय को भी भिन्न समझते हैं। आचार्यने द्रव्य का सम्यक् स्वरूप समझाने के लिये द्रव्य को गुण और पर्याय से भिन्न बतलाया है, उसे वे वास्तविक भिन्न समझते हैं; द्रव्य और पर्याय को दो भाव न मानकर वे उन्हें दो भाग रूप मानने तक की प्ररूपणा करते हैं और आगे उसमें भी सामान्य-विशेष ऐसे दो भाग की कल्पना करते हैं। इस प्रकार वस्तु व्यवस्था को ही विकृत रूप से धारण करके तथा विकृत रूप से प्ररूपणा करके वे स्वयं संसार का अन्त करनेवाले धर्म से तो दूर रहते ही हैं और जाने-अनजाने अनेक लोगों को भी संसार के अन्त से दर रखते हैं। यह बात अत्यन्त करुणा उपजानेवाली है; इसलिये यहाँ प्रथम हम वस्तु व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।
उसके पश्चात् हम निश्चय सम्यग्दर्शन की विधि भी समझाने का प्रयास करेंगे। मगर कोई ऐसा न समझे कि हम तनिक भी व्यवहार धर्म के ख़िलाफ़ हैं। व्यवहार धर्म जो हमें निश्चय धर्म की ओर ले जावे वह सब व्यवहार, 'धर्म' संज्ञा पाने का अधिकारी है। ऐसी है जिनशासन की अनेकान्तमय वस्तु व्यवस्था, यह हमें कभी नहीं भूलना चाहिये। यही विधि है तत्त्व के निर्णय की जो हम आगे समझाने का प्रयास करेंगे। अब हम आगे द्रव्य-गुण की यथार्थ व्यवस्था समझाने का प्रयास करते हैं।