Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 19
________________ सम्यग्दर्शन निराशा से घिर जाते हैं और कई जीव उसको अपनी नियति के ऊपर छोड़ देते हैं। कई लोग अपनी पसन्द की साम्प्रदायिक क्रियाओं में या क्रम में लग जाते हैं। कई लोग आश्रम, मन्दिर, स्थानक, तीर्थ या साम्प्रदायिक व्यवस्था के कामों में लग जाते हैं। वे काम बुरे नहीं हैं परन्तु आत्मा का लक्ष्य भूलकर उसको ही धर्म मानना ग़लत है। कई लोग देव को प्रसन्न करने की आराधना में लग जाते हैं और उसको ही धर्म मानने लगते हैं। कई लोग देव को प्रसन्न करने की आराधना से उत्पन्न हुई कोई मामूली सिद्धि में ही अटक जाते हैं और उसको ही धर्म और धर्म की प्रभावना मानते हैं; उससे अपना अहंकार भी पुष्ट करते हैं। कई लोग प्राप्त हए क्षयोपशम ज्ञान में ही रुक जाते हैं और उससे ही अपना अहंकार पुष्ट करते हैं। कई लोग ध्यान (आर्त ध्यान) के पीछे पड़ जाते हैं अर्थात् ध्यान से ही सम्यग्दर्शन मिलेगा ऐसा मानकर आत्मा का अनुभव न होने के कारण देहादिक का ही ध्यान करते रहते हैं, जिसे शास्त्र में आर्त ध्यान कहा है और उसे तिर्यंच गति का कारण माना है। कई लोग कोरी भक्ति में लग जाते हैं। यथार्थ भक्ति वह होती है, जिसमें मुमुक्षु जीव भगवान के या सत्पुरुष के वचनों पर चलने का प्रयास करता है न कि भगवान या सत्पुरुष की स्तुति करके स्वयं के कल्याण का उत्तरदायित्व उनके सिर पर मढ़ देता है। ऐसा करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं। जैसे कि - जिसे संसार से लगाव है उसे पुरुषार्थ संसार में लगाना है और स्वयं के आत्म कल्याण की जिम्मेदारी भगवान/सत्पुरुष के ऊपर रखनी है अथवा संसार में जैसे अन्य वस्तुएँ चापलूसी करके पाते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन को भी भगवान या सत्पुरुष की कोरी (बिना आज्ञा पाले हए) भक्ति करके पा लेना है अथवा संसारी को जैसे हर चीज दिखावे या आडम्बर के लिये चाहिये, उसी तरह से सम्यग्दर्शन भी दिखावे के लिये चाहिये न कि मुक्ति के लिये। अन्य कई सांसारिक कारण भी हो सकते हैं। अन्य कई लोग संसार के आकर्षण से, धर्म के नाम पर एकत्रित की हुई धन-दौलत और उसके प्रपंच में ही फंस जाते हैं। इस तरह से अनेक लोग सम्यग्दर्शन की बात तो करते हैं परन्तु वे मात्र व्यवहार सम्यग्दर्शन को ही वास्तविक/सच्चा सम्यग्दर्शन मानकर सन्तुष्ट हो जाते हैं और अपने आप को वे मोक्षमार्गी समझने लगते हैं। इसी रीति से अनादि से हमने स्वयं को ठगा है। कब तक ठगना है अपने आपको? इस बात का विचार करके स्वयं के ऊपर करुणा कर अर्थात् स्वदया कर अनादि से दुःखमय संसार में भटकते हुए अपने आपको इस संसार से छुड़ाना है, मुक्त कराना है। इस कारण से निश्चय सम्यग्दर्शन आवश्यक है।

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