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सम्यग्दर्शन की विधि
समग्र रूप से शास्त्रों के अध्ययन के अभाव के कारण वस्तु स्वरूप को समझने में कई लोगों को दिक्कत होती हैं। इसलिये शास्त्रों को समग्रता से नहीं जाननेवाले लोग किसी के भी शब्दों को पकड़कर उसका मात्र शाब्दिक अर्थघटन करते हैं, मगर वे उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण नहीं कर पाते। अर्थात् वे इस प्रकार से शाब्दिक अर्थ ग्रहण करके एकान्त रूप परिवर्तित होते हैं या विकृत रूप से भी परिवर्तित होते हैं। लेकिन जताते ऐसा हैं कि हमने सब समझ लिया है और ऐसे ही गुमान में वे अन्य किसी की सत्य बात भी, उनके मत के अनुकूल न होने से, नहीं सुनते जब वे शाब्दिक अर्थ ग्रहण अनुसार पकड़ी हुई अपनी बात के ऊपर अड़े रहते हैं, तब उनको वह बात आग्रही बनाती है और आगे चलकर वह आग्रह हठाग्रह, दुराग्रह और एकान्त रूप आग्रह बनता है।
जैसे दृष्टि (सम्यग्दर्शन) का विषय यानि ‘पर्याय रहित द्रव्य' इस कथन का शाब्दिक अर्थ ग्रहण करके अभेद द्रव्य में से पर्याय को भौतिक रीति से निकालने की चेष्टा करना। यह तो सबसे बड़ी गलती होगी क्योंकि अभेद और अखण्ड वस्तु/द्रव्य में से अगर एक अंश भी निकालने की चेष्टा करने पर पूर्ण वस्तु का ही लोप हो जाएगा। अभेद नय सम्यग्दर्शन के लिये कार्यकारी है। परन्तु वर्तमान में मुमुक्षु जीव कोई न कोई भेद मानकर, भेद में ही रमते हैं और इसी में वस्तु का निर्णय करने की चेष्टा करते हैं, इससे उन्हें अभेद वस्तु की प्राप्ति (अनुभव) असम्भव ही बनी रहती है। इस कमी की पूर्ति हेतु हम इस पुस्तक में वस्तु का भेदाभेद स्वरूप समझाने का प्रयास करेंगे। वह अभेद अनुभूति में आनेवाली वस्तु (द्रव्य) को किस प्रकार पाना चाहिये वह बात हम अगले कुछ प्रकरण में समझाने का प्रयास करेंगे। यह सब अनन्त काल के बाद आनेवाले हुण्डावसर्पिणी पंचम काल का ही प्रभाव है कि भगवान के मात्र २६०० वर्ष पश्चात् ही, ज्यादातर सम्प्रदायों में धर्म का मात्र बाहरी स्वरूप ही रह गया है और धर्म का प्राण अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन की बात बहुत कम लोग ही करते या मानते हैं।
सम्यग्दर्शन के लिए भेद ज्ञान आवश्यक है। अर्थात् पुद्गल और उसके लक्ष्य से होनेवाले भावों से आत्मा का भेद ज्ञान ज़रूरी है। द्रव्य-गुण-पर्याय की समझ आवश्यक न होने पर भी, जिसने उस द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप वस्तु व्यवस्था अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप वस्तु व्यवस्था विपरीत रूप से धारण की हो तो उसके लिये यहाँ प्रथम द्रव्य-गुण-पर्याय रूप और उत्पाद-व्ययध्रौव्य रूप वस्तु व्यवस्था सम्यक् रूप से बतलाते हैं। उस पर विचार करना आवश्यक है और वह जैसा है वैसा प्रथम स्वीकार करना परम आवश्यक है, क्योंकि जैन समाज में एक वर्ग ऐसा