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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ लेवो अम्मृत विषहु ते, कश्चन अशुचिहुँ थान ॥
उत्तम विद्या नीच से, अकुल रतन तिय आन ॥ १२॥ अमृत यदि विष के भीतर भी हो तो उस को ले लेना चाहिये, सोना यदि अपवित्र स्थान में भी पड़ा हो तो उसे ले लेना चाहिये, उत्तम विद्या यदि नीच जातिवाले के पास हो तो भी उसे ले लेना चाहिये, तथा स्त्रीरूपी रैन यदि नीच कुल की भी हो तो भी उसका अङ्गीकार कर लेना चाहिये ॥ १२ ॥
तिरिया भोजन विगुण अरु, लाज चौगुनी मान॥
जिद्द होत तिहि छ। गुनी, काम अष्टगुण जान ॥ ६३ ॥ पुरुष की अपेक्षा स्त्री का आहार दुगुना होता है, लज्जा चौगुनी होती है, हठ छ:गुणा होता है और काम अर्थात् विषयभोग की इच्छा आठगुनी होती है ।। ६३ ।।
मिथ्या हठ अरु कपटपन, मौत्य कृतघ्नी भाव ॥ निर्दयपन पुनि अशुचिता, नारी सहज सुभाव ॥ ६४ ॥ झूठ बोलना, हठ करना, कपट रखना, मूर्खता, किये हुये उपकार को भूल जाना, दया का न होना और अशुचिता अर्थात् शुद्ध न रहना, ये सात दोष स्त्रियों में स्वभाव से ही होते हैं ॥ ६ ॥
भोजन अरु भोजनशकति, भोगशक्ति पर नारि॥
गृह विभूति दातारपन, छउँ अति तप निर्धार ॥६५॥ उत्तम भोजन के पदार्थों का मिलना, भोजन करने की शक्ति होना, स्त्री से भोग करने की शक्ति का होना, सुन्दर स्त्री की प्राप्ति होना और धन की प्राप्ति होना तथा दान देने का स्वभाव होना, ये छवों बातें उन्हीं को प्राप्त होती हैं जिन्हों ने पूर्व भव में पूरी तपस्या की है ।। ६५॥
नारी इच्छागामिनी, पुत्र होय घस जाहि ।।
अल्प धन हुँ सन्तोष जिहि, इहैं खर्ग है ताहि ॥ ६६ ॥ जिस पुरुष की स्त्री इच्छा के अनुसार चलनेवाली हो, पुत्र आज्ञाकारी हो और थोड़ा भी धन पाकर जिस ने सन्तोष कर लिया है, उस पुरुष को इसी लोक में खर्ग के समान सुख समझना चाहिये ॥ ६६ ॥
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१-परम दिव्य स्त्रीरूप रन चक्रवर्ती महाराज को प्राप्त होता है क्योंकि दिव्यागना की प्राप्ति पूर्ण तपस्था का फल माना गया है-अतः पुण्यहीन को उस की प्राप्ति नहीं हो सकती है, इस लिये यदि वह स्त्रीरुप रत्न अनार्य म्लेच्छ जाति का भी हो किन्तु सर्वगुणसम्पन्न हो तो उस की जाति का विचार न कर उस का अंगीकार कर लेना चाहिये ।