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अज्ञाशक्ति से जगत् की अधिकरण क्रिया चलती है और प्रज्ञा से विराम पाती है। स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रज्ञा प्रकट होती है और अज्ञा विदाई ले लेती है। अज्ञा संसार में भटकाती है, प्रज्ञा मोक्ष के किनारे तक ले जाती है ! प्रकट हो चुकी प्रज्ञा निरंतर आत्महित ही दिखाती रहती है- निरंतर सावधान करती रहती है, और संसार का हल ला देती है ! केवल प्रकाश स्वरूप आत्मा संसार से बाहर किस तरह से निकलेगा? वह तो आत्मा के अंग रूपी प्रज्ञा ही सब कर लेती है! आत्मा की मूल कल्पशक्ति से अज्ञा का उद्भव होता है, उसमें फिर अहंकार मिल जाता है जिससे संसार निरंतर चलता रहता है! संयोगों के ज़बरदस्त दबाव से स्वाभाविक ज्ञान-दर्शन विभाविक बन गया। सिद्धगति में संयोग नहीं होते, संयोगों का दबाव नहीं होता, इसीलिए वहाँ पर विकल्प नहीं हैं।
कर्तापन में नि:शंकता, वह अज्ञदशा है। कर्तापन में शंका पड़े, वह स्थितप्रज्ञदशा और जहाँ कर्तापद ही उड़ गया, वहाँ पर प्रज्ञा उत्पन्न होती है।
चित्त और प्रज्ञा में फर्क कितना? कि चित्त पहले का देखा हुआ ही देख सकता है जब कि प्रज्ञा सबकुछ नया ही देखती है, विशेष जानती है। खुद के दोषों को भी जो दिखाए, वह प्रज्ञा है। चित्त बाकी सबकुछ देख सकता है, लेकिन प्रज्ञा को नहीं देख सकता। जब कि आत्मा तो प्रज्ञा को भी देख सकता है! प्रज्ञा केवलज्ञान होने तक ही शुद्धात्मा की सेवा में रहती है।
आत्मा का एक विकल्प और पुद्गल ने बिछा दी पूरी बाज़ी, परिणाम स्वरूप संसार सर्जित हो गया! इसमें स्वतंत्र कर्ता कोई भी नहीं है। संयोगों के दबाव से इस परिस्थिति का सर्जन हुआ। इस पुद्गल का निरंतर परिवर्तन होता ही रहता है, अवस्थाओं के रूप में! तत्व स्वरूप से पुद्गल केवलज्ञान स्वरूप हैं जो कि अविनाशी है। पुर गलन अर्थात् पुद्गल। पूरण-गलन होता ही रहे, वह पुद्गल। रूप, रस, गंध और स्पर्श पुद्गल के मुख्य चार गुण हैं। पुद्गल में ज्ञान-दर्शन नहीं है, लागणी का अनुभव ही नहीं है, और क्षायकभाव भी नहीं है! जगत् में सक्रियता सिर्फ पुद्गल की ही है। बाकी के तत्व अक्रिय स्वभाववाले हैं। पुद्गल की सक्रियता के कारण ही जगत् में तरह-तरह के रूप दिखते हैं।
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