Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी वाणिज्य भूमि है ओर शृंगार भूमि भी। यहां का किला भी प्रसिद्ध है, यहां के बैल सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध हैं, कई वनौ. षधियां यहां की भूमि में ही पैदा होकर महत्त्व पाती हैं। यहां के लोग बडे साहसी हैं ओर व्यापार के लिये दूर दूर तक फेले हुए हैं। यहां ही खरतरगच्छ आम्नाय के विद्वान् यतिश्री रूपचंद्रजी रहते थे, आपने यति दीक्षा यद्यपि विद्वद्वर्य जैनाचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी के पास ली थी, तथापि आप यतिश्री लालचंद्रजी के शिष्य घोषित किये गये थे। आपकी परंपरा इस प्रकार है। गुरु परंपरा यतिवर्य आचार्य श्री जिनमुखसरि शिष्य कर्मचंद्रजी ईश्वरदासजी, वृद्धिचंदजी लालचंदजी रूपचंदजी पूज्य आचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी, भगवान् महावीर के पट्टानुक्रम में ७० वें पाट पर हुए हैं। पाठकों की जानकारी के लिये इस परंपरा का संक्षिप्त इतिहास देना अनुचित न होगा। For Private and Personal Use Only

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