Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वप्न सिद्धि उसे होगया। मोहन की आयु अब १५ वर्ष की है, वह महाराजश्री के हर कार्य में सहायक बनता है। यतिश्री का १९०२ का चातुर्मास बम्बइ हुआ। मोहन भी साथ पहुंचा । चेले की योग्यता से किस गुरुको खुशी न होगी। यतिजी भी बम्बइ में बालक की तारीफ सुन फूले न समाते थे। समय देख यति श्री रूपचंदजीने मोहन से कहा-भाइ ! तुम्हारे पिताश्रीने तुम्हें मुझे सोंपा था। इतने वर्ष तुम्हें साथ रक्खा है विद्याभ्यास करवाया है, साधना सिखाइ है, तुम भी अब योग्यायोग्य का विचार कर सकते हो। हमारा तो यतिधर्म है, संसार से हमें कुछ रस नहीं है। मेरी इच्छा है कि तुम एक बार फिर सोच लो कि तुम्हें क्या करना है। ___मोहनलाल को यह बात कांटे की तरह चुभी। यतिधर्म की इतनी कठिनता नहीं थी जितनी साधु धर्म की-फिर उन्हें तो अध्ययन से स्वयं समझ में आ गया था कि कौन क्या है। गुरुजी के प्रति भी उसका इतना अनन्य भाव बढ़ गया था कि वह एक दिन भी उन से अलग होने की नहीं सोच सकता था। उसने कहा-आप मेरे गुरु है, मेरे लिये दूसरा मार्ग नहीं है, मैं आपका हुँ। यतिजी को आनंदाश्रु हो आये। मोहन दीक्षा के योग्य है यह उन्हें लग गया था, फिर उसे एक बार कस भी लिया था। ___यतिदीक्षा हमेशां श्रीपूज्य ही देते आये हैं। अतः इस संबंध में यतिजीने श्रीपूज्यजी श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को, जो उस वख्त इन्दौर बिराजते थे और जिन के ही हाथों सिद्धक्षेत्र पाली For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87