Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी हाथ से निकल जायगा-निकल नहीं जायगा वे स्वयं अपने हाथों उसे किसी को देदेंगे । पंडितजी को यह विचार आते ही एक बार रोमांच हो आया। जी कांपने लगा ! प्राण प्यारा मोहन दूर हो जायगा ? फिर हमारा जीवन कैसे चलेगा? और उस की मांकी तो क्या दशा हो जावेगी? इस तरफ अनेक वार विचार कर सोचा मैं योंही गभराता हूं। मेरा घर मोहन के योग्य कहां ? यहां रह कर तो वह हमारी ही, विद्या व परंपरा में आयगा । वास्तव में वह तो कोइ सिद्ध महात्मा बनने को ही संसार में आया है, मुझे अपना मोह छोड देना चाहिये और जैसा दैवी संकेत है किसी योग्य महात्मा को मोहन सोंप देना चाहिये । स्वप्न सिद्धि पंडित बादरमलजी को अब चिन्ता होने लगी। कौन ऐसा अच्छा महात्मा है जिसे वे अपना लाडिला सोंप दें। यति वेष का ध्यान उन्हें था फिर भी वे योग्य गुरु की फिकर में थे। जहां जाते मोहन को भी साथ ले जाते। मोहन भी ज्ञान की बातें करने लगा था और “ होनहार विरवान के, होत चीकने पात" की कहावत चरितार्थ कर रहा था। किसी दिन कार्यवशात् पंडितजी का नागौर जाना हुआ। मोहन भी साथ ही में था । यतिश्री रूपचंदजी का नाम शहर के सभी लोगों के मुंह पर था। परिचितों से उनकी यशोगाथा सुन उनके दर्शनार्थ जाने का प्रलोभन उन्हें भी हुआ। दोनों बाप बेटे यतिजी के उपाश्रय में पहुंचे। उनकी शांत मुद्रा का प्रभाव पडा ही। पंडितजीने कुछ दिन नागौर रहना तय किया। प्रतिदिन यतिजी के For Private and Personal Use Only

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