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मोहन-संजीवनी
शासन सेवा की भावनायें जीवन में उत्तरोत्तर बढते रहे ओर जनता की भक्ति भी आप में निरंतर बढती ही रही। आपकी रुग्णता से सूरत के लोग तो गमगीन थे ही बाहर से भी भक्तों के टोले उमड़ने लगे थे। महाराजश्री का स्वास्थ्य नहीं सुधर सका। फिर भी अपनी क्रियाओं में महाराजश्री कभी भी शिथिल नहीं हुए। अपने शिष्य परिवार को योग्य मार्गदर्शन देते रहे । अपना अंत समय समीप जान अपने भक्त परिवार को इस असार संसार और नश्वर देह का उपदेश देते हुए शोक न करने को समझाया । स्वयं भी आत्मध्यान में तल्लीन रहते । मोह की वृत्तियां को दबा कर आत्मवृत्ति में एकता अनुभव करते। __सं. १९६३ के वैशाख वद १२ (गुजराती चैत्र वदी १२) का दिन मध्याह्न का टाइम आ पहुंचा। महाराजश्रीने स्वयं व्रतपञ्चक्खाण किये, आत्मभाव में स्थिर हुए और समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। सारे भारत में ये समाचार फैल गये। जैन जगत् का सूर्यास्त हो गया। हा नाथ ! हा! जैनजनाग्रगण्य !.
हा नम्यनम्याखिळलोकमान्य ।। बालं पितेवातिकरालकाले,
संत्यक्तवान्किं तव युक्तमेतत् ? ॥१॥
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