Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 69
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावण की प्रार्थना अन्य कुछ शासनोन्नति का कार्य नहीं होता, प्रकृति मेरी लिहाज है और कोई आग्रह मैं लोगों पर तो क्या अपने शिष्यों पर भी लाना नहीं चाहता हुं । बाकी तो आज जो कुछ भी मैं हूं और शासन प्रभावना का यत्किंचित भी काम कर सका हूं वह पूज्य परम गुरुदेव दादा साहब की असीम कृपा का ही फल है । मेरा उन पर अनन्य भक्तिभाव है । खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा स्वीकार किया हुआ मार्ग व क्रियाएं सर्वथा सत्य है । मेरे अंत:करण में उनके प्रति पूरी श्रद्धा है पर अब में ऐसी स्थिति में हूं कि एकाएक एसा परिवर्तन कर लेना मेरे लिये अशक्य है । श्रावकोंने महाराजश्री से यह भी अजे की कि आप से पूर्ण रूप से अभी न भी बन सके तो आप अपने शिष्यों को ही आज्ञा दें ताकि वे इस परंपरा को अपना है । ८ महाराजश्रीने तुरंत अपने निकटतमवर्त्ति शिष्य श्री हर्षमुनिजी पंन्यास को बुलाकर कहा कि यह तुम भलीभांति जानते हो कि अपने खरतरगच्छ के हैं। सिर्फ इस गुजरात में विचरने के व प्रकृति सरल होने के कारण अपनी क्रिया मुझ से कुछ छूट गइ | ये श्रावक समुदाय आग्रह कर रहे हैं अतः यदि तुम लोग फिर से अपने गच्छ की क्रिया करना आरंभ कर लो तो बहुत अच्छा है। श्री पंन्यासजी मौन रहे । महाराजश्री व उपस्थित श्रावक समुदाय को यह समझने में देर नहीं लगी कि जिस वर्ग व समुदाय के मध्य में पंन्यासजी स्थित हैं उनके बीच में पंन्यासजी से इस मार्ग पर आना कठिन है । तब फिर महाराजश्री से अन्य शिष्य के लिये भी कहा गया । महाराजश्रीने अपने For Private and Personal Use Only

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