Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 73
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाराजश्री का स्वाशय कथन हैं वह नितांत असत्य है। ठीक है उन्होंने अमुक अंश में अथवा किसी समय पूरे रूप में भी तपगच्छ की क्रिया की हो, किंतु उन पर ऐसा आग्रह लादना उनकी सरल प्रकृति और उदारता का दुरुपयोग है। जब तक किसी भी गच्छ विशेष का साधु अन्य गच्छ के कोइ साधु को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता तब तक वह अपने मूल गच्छ का ही माना जायगा। महाराजश्रीने कभी किसी अन्य को गुरु रूप में माना नहीं है। यह तो उनको हृदय का विशालता थी, शासन का अनुराग था कि जहां जैसा अवसर देखा कर लिया और शासनोन्नति में हाथ बटाया । आगे चल कर महाराजश्री अपने शिष्यो से जो बातचीत अंतिम समय जान की है उस से भी यह स्पष्ट हो जायगा कि महाराजश्री अपने आपको खरतरगच्छ का ही मानते थे। गुरुदेव का आज्ञा पत्र पाने के बाद यथा आज्ञा पंन्यासजी श्री जसमुनिजीने अपने अन्य मुनियों के साथ खरतरगच्छ की क्रिया करना प्रारंभ कर दिया । .. बम्बइ में अनेक शासन प्रभावना के काम आपके उपदेश से संपन्न हुए जिनका संक्षिप्त वर्णन आगे दिया है। सं. १९६३ की माघ कृष्णा १३ को अपने शिष्य-परिवार के साथ आपने बम्बइ से विहार किया। अगासी में आप ज्यादे अस्वस्थ हो गये। गुरुदेव की अस्वस्थता देख कर गुरुवर के भक्त श्री रूपचंद लल्लुभाइने २१ हजार रुपये साधारण खाते में दिये। कतार गांव मंदिर की प्रतिष्ठा के वार्षिक दिवस पर आज भी इन रुपयों के वियाजमें से नवकारशी की जाती है। थोडे समय में For Private and Personal Use Only

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