Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी खडा है पर मनुष्य का कोइ वास नहीं है। ओर कोइ साधन उपलब्ध नहीं है। फिर भी महाराजश्री अपने विचार बल में स्थिर थे, वहीं उन्होंने " अणुजाणह जसगो" कहा और अपना आसन बिछाया। प्रतिक्रमण किया, यथा समय पोरसी पढ़ाली । ओर कुछ देर आराम कर इस शून्य आवास में पूर्ण शांति के वातावरण में आप पद्मासन जमा ध्यान में बैठ गये। मध्य रात्रि का समय हुआ था, महाराज स्थिर बैठे थे, वायु धांय धांय चल उठा था, पशुओं की गति और उनके आवाज का शब्द धीमे थे पर स्पष्ट सुने जा रहे थे। महाराजश्री ध्यानमें मग्न थे। कुछ ही देर में शेर की गर्जना सुनाई दी। गर्जना धीमे धीमे समीप सुनी जाने लगी। कुछ ही देर में आंख खोली तो देखा सामने ही शेर मुंह फाडे चला आ रहा है। महाराजश्री अपने ध्यान में और स्थिर हो गये. देह की नश्वरता और आत्मा के अमरत्व का आप को अनुभव हो चूका था। जरा भी विचलित हुए वगैर प्रभुध्यान और शास्त्रों की आज्ञाओं में तल्लीनता बढने लगी। " एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" " संजोगमूला जोवेण. पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरियं ॥२॥" "खामेमि सच जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सम्वभूएसु, वे मज्झ न केणइ ॥३॥" इन्हीं विचारणाओ में समय चला गया, शरीर स्थिर था। शेर कुछ देर खडा रहा और फिर लौट चला। ध्यान ही में रात्रि For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87