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मोहन-संजीवनी
ही महाराजश्री कुछ स्वस्थ हो गये । उधर गुरुदेव के परम विनीत
और प्रधान शिष्य पंन्यासी श्री जसमुनिजी मारवाड से उग्र विहार कर गुरु दर्शनार्थ पधार रहे थे। महाराजश्रीने स्वयं सूरत पहुंचने की विचारणा से उन्हें वहां स्थिरता करने का संवाद भेजा था अतः वे वहां रुक गये थे। महाराजश्रीने अगासी से विहार किया पर दहाणू पहोंच कर फिर अधिक अस्वस्थ हो गये। उधर पंन्यासजीने गुरुदेव की अस्वस्थता के समाचार सूरत में सुने तो तत्काल विहार किया और सूरत से १८. मील नवसारी पहुंच शामको पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। इसी तरह उग्र विहार कर वे तीसरे दिवस दहाणुं पहुंच गये व गुरु महाराज के दर्शन कर प्रसन्न हुए। कुछ दिनों में स्वास्थ्य लाभ हुआ तो विहार कर गुरुदेव सूरत पहुंचे। १९६३ की फाल्गुन वद ७ का सूरत में आपका प्रवेश हुआ। स्वास्थ्य यहां भी खराब रहने लगा-परिणाम स्वरूप बहुत कमजोर हो गये।
महाराजश्रीने जब बम्बइ से विहार किया तब यही भावना थी कि परम पवित्र तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजो जाना और वहीं युगादिदेव के चरणों में यह नश्वर देह छूट जाय तो अच्छा। परंतु प्रकृति को शायद यह स्वीकार न था। सूरत पधारने के बाद शरीर क्षीण होता ही चला। अस्वस्थता बढती ही चली । संघने अत्यंत आग्रह कर विहार न होने दिया।
इस समय आपके पास १८ साधु एकत्र हुए थे। एक दिन महाराजश्रीने उन सब को जिन में पंन्यास श्री जसमुनि, मुनि श्री कांतिमुनि व पं० श्री हर्षमुनि आदि थे-सबको आपने अपने पास बुलाया और फरमाया कि
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