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मोहन-संजीवनी
" मुनि श्री मोहनलालजी की जय" तो संघ में आश्चर्य के साथ एकदम आनन्द छा गया। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज भी एकदम हर्ष से लबालब हो गये, ओर व्याख्यानपीठ में नीचे उतर आये। ___ श्री आत्मारामजी महाराज पंजावी थे। सारा पंजाब उनके इशारों पर नाचता था। उनको गुरु के रूपमें पा निहाल हा गया था। पर गुजरात और राजस्थान में भी उनका स्थान कम न था। वह समय था जब जैन साधुओं का बडा अभाव सा था। पंजाब से मारवाड और गुजरात तक महाराजश्रा का पूरा प्रभाव था यही स्थिति श्री मोहनलालजी महाराज की थी परंतु एक की मान्यता थी तपगच्छ की, एक की खरतरगच्छ की । दोनों ही अपने गच्छ के अधिनायक थे । पर यहां तो दोनों अपने अधिनायकत्व को भूल गये। नम्रता, उदारता ओर विशाल हृदयता के अग्छूट भंडार वाले इन की अंदर की नम्रता उभर आइ दोनों एक दूसरे को वंदन करने तैयार हो गये, बड़ी होड चली पर अंत तक किसीने भी किसी को वंदन नहीं करने दिया। कहां आज का एक गच्छवालों की अधिनायकत्व के मोह में आपसी विद्वेषता का कलुषित वातावरण और कहां इन दो भव्य विभूतियों का स्वच्छ नम्र हृदय । आज भी यदि जैन समाज के साधुओं में ऐसी उदारता होती तो प्रभु महावीर का संदेश दुनियाके कोन कोन में पहुंचा होता व समाज का वातावरण स्वस्थ होता । अस्तु, अंत में दोनों के शिष्योंने परस्पर वंदना की। श्री संघ भी उस घटना को देख दंग हो गया ओर भक्ति भरे हदयों से दोनों की भक्ति में रत हो गया।
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