Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी आगंतुक महाशय का पारा चढ गया, आवेश में ही उसने कह दिया “महाराजश्री! याद रखें यदि ऐसा हुआ तो कइयों सिर रंगे जायेंगे इतना ही नहीं संभव है आपको भी कोर्ट के कटघरे में खड़े रहने का अवसर आवे ।" महाराजश्रीने अपने आपको पूर्ण काबु में रखते हुए यह बात सुन ली। उन्हें कोइ पक्ष न था वे तो सत्यवक्ता, कर्ता थे। अपनी विचारधारा के लोगों को प्रसन्न करना ही उनका उद्देश न था, वे तो अखिल समाज के ऐक्य व शांति के उपासक थे। उन्होंने शांति से उसे समझा कर कह दिया-"महानुभाव ! यदि तुम्हारे जैसे धर्मनिष्ठ श्रावकों को यही उचित लगेगा कि मैं कोर्ट के कठघरे में खड़ा रहुं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बाकी मेरा तो एक ही उपदेश है कि हरसमय मन के धैर्य को न खो कर पूर्ण शांति रखकर सोच समझ कर काम किया जावे।" ____ आगंतुक महाशय तो अपने रंग में रंगे हुए थे। उन्होंने तो इतना ही कहा-“ महाराजजी ! जो कुछ सुना था आपको अर्ज कर दिया, आगे तो जो कुछ भावि में होनहार होगा वही होगा।" वह तो यह कह वंदन करता हुआ चलता बना। महाराजश्रीने स्थिति की विषमता को पहिचानी । विचार किया और निर्णय किया कि आज तो लोगों की त्यौरियां चढी हुइ है, कुछ दिनों में उतर जायेगी, वातावरण शांत हो जायगा फिर ही कुछ कार्य करना ठीक होगा, उन्होंने लालबाग उपाश्रय के भइये को उसी समय समर्थक पार्टी के अगुआ को बुलाने भेजा, उनके आने पर सब कुछ समझा दिया। उस दिन के लिये बेरिस्टर For Private and Personal Use Only

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