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गुरु परंपरा
"लोकार्यकर्चपुरगच्छमहाधनोत्थ
मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरमरिशिष्यः । प्राप्तः प्रथां भुविगणिजिनवल्लभोऽत्र,
तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥१॥ इस तरह श्री अभयदेवसूरि के पास उपसंपदा स्वीकार कर आप देशदेशान्तरों में लगातार विचरण करते रहे। चैत्यवासियों की जड़ें खोखली करने व उन्हें आमूल उखाड फेंकनेका आपने जी जान प्रयत्न किया और इस कार्य में आपको आशातीत सफलता भी मिली। अपने अगाध पांडित्य व असाधारण कवित्व शक्ति द्वारा आपने अनेक ग्रन्थों की रचना कर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया। आपके ग्रंथों की रचना देख आज भी विद्वान लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं। बागड देश में अपने उपदेश से आपने कोइ दस हजार अन्य मतावलबियोंको जैन धर्मोपासक बनाये । यो सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न इन आचार्यश्रीने अनेक लोगों को धर्म में जोडे । __इनके पट्टधर हुए प्रथम दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज । आप अनेक यौगिक शक्तियों से विभूषित थे व आपका प्रभाव भी अपूर्व था। आपने एक लाख तीस हजार नये श्रावक बनाये, उनके नये गोत्र स्थापित किये एवं ये गोत्र ( पूर्व के ओसवाल श्रीमाल आदि के ) विभिन्न गोत्रों में दूध पानीकी तरह हिलमिल गये । इतने बड़े प्रमाण में नये श्रावकोंको बनाने का गौरव जैन समाज के इतिहास में केवल आपको ही मिला है। आप बडे दादाजी के नाम से प्रख्यात है और आज भी सारे
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