Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ मोहन- संजीवनी तो इस प्रदेश में कुछ भी धर्मप्रभावना का काम न हो सकेगा। इसी दूर दर्शिता से व अपनी सरल प्रकृति के कारण तथा शासन उन्नति की ara से महाराजश्रीने गच्छ को गौण कर लिया और तपागच्छ के श्रावक आते तो उन्हें प्रत्यक्ष में सारी तपगच्छ की क्रिया करवाते, इससे किसी को कोई हिचकिचाहट नहीं रहती थी । परिणाम यह हुआ हि कि स्वयं महाराजश्री से भी धीमे धीमे स्वगच्छ समाचारी की कुछ क्रियाएं अमुक अंश में छूट गई। इनके शिष्य - परिवार में भी आग्रहपूर्वक इस तरफ का लक्ष्यबिंदु नहीं रहा । कोन्फरेन्स के इस अवसर पर खरतरगच्छ के जो प्रतिष्ठित व्यक्ति आये थे उन्हें भी यह बात उचित नहीं लगी। कुछ अग्रगण्य व्यक्ति, जिन में इस अधिवेशन के प्रमुख रायबहादुर बाबू बद्रीदासजी, ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के खजानची सेठ नथमलजी गुलेच्छा, जयपुर निवासी सेठ मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर के सुप्रसिद्ध संगीतकार सेठ कानमलजी पटवा व फलोधी के सेठ फुलचंदजी गुलेच्छा आदि थे, वे सब महाराजश्री के पास आये और एकान्त में महाराज साहब से सारी हकीकत समझाइ | उन्होंने बडे विनय से यह भी कहा कि यदि आपको खरतरगच्छ की अमुक क्रियाएं ठीक न लगती हों तो हमें भी बतावें ताकि हम भी उन्हें छोड़ सकें । बाकी आप तो हमारे गच्छ के शिरोमणि हैं । अतः आपको गच्छ की धुरा बराबर संभालनी चाहिये । महाराज साहबने बडे प्रेम से श्रावकों की बात सुनी और उन्हें शांतिपूर्वक समझाते हुए बताया कि यह ऐसा ही प्रदेश था जहां सर्वत्र तपागच्छ वाले ही है और उनमें गच्छराग भी भारी प्रमाण में है । मैं जो इनकी तरह यदि गच्छे राग में पड़ जाता तो For Private and Personal Use Only

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